पुस्तक समीक्षा : जनता स्टोर लेखक : नवीन चौधरी
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एक विशेष अभिरुचि वाले वर्ग को छोड़ दें तो ज्यादातर लोगों के लिए राजनीतिक किताबें उबाऊ ही होती हैं, लेकिन नवीन चौधरी जी ने "जनता स्टोर" का लेखन करके इस उबाऊ विषय को भी एक रोचक उपन्यास की तरह रसमय बना दिया है।
उपन्यास पहले पन्ने से ही अपनी रोचकता को व्यंग्य से बढ़ाता चलता है, कुछ पंक्तियाँ देखते हैं : "मजेदार बात ये है कि जनता स्टोर मार्केट में कोई जनता स्टोर नहीं है; हाँ, बहुत सालों पहले हुआ करती थी। लेकिन जिस तरह हमारे जनतंत्र से जन के गायब होने पर भी उसे जनतंत्र कहा जाता है, वैसे ही जनता स्टोर बंद होने पर भी इस मार्किट को आज भी जनता स्टोर कहा जाता है।" ये पंक्तियाँ वैसे तो कटाक्ष या व्यंग्य की श्रेणी में आती हैं लेकिन विषयानुसार लेखक कितना परिपक्व है और उपन्यास का कथानक कितना विस्तृत होना है; इसका अंदाज़ा यहीं से लग जाता है।
उपन्यास जिस विषय को आधार बनाकर लिखा गया है वो विषय साहित्य की इस विधा से पूर्ण रूप से अछूता है या ये कहें कि ये विषय केवल अखबारों तक ही सीमित है। छात्र राजनीति पर लगातार चर्चा हो रही है, कभी किसी विश्वविद्यालय से छात्र-संघ भंग कर दिया जाता है तो कभी लिंगदोह समिति की सिफारिशों के आधार पर चुनाव कराने की बात होती है। लेकिन जिस तरह से इस उपन्यास में छात्र राजनीति की स्थिति का सिंघावलोकन किया गया है वह इस विषय को समझने के लिए पर्याप्त है। छात्र राजनीति होनी चाहिए या नहीं; इस प्रश्न का उत्तर भी स्पष्ट तरीके से इस उपन्यास को पढ़कर मिल जाएगा। इस बात में तो शत प्रतिशत सच्चाई है कि छात्र राजनीती से छात्र तो गायब हो गए हैं, जो हैं वो बड़ी राजनितिक पार्टियों के मोहरे भर हैं जिनका उपयोग बड़े राजनेता अपनी बंदूकें चलाने के लिए कंधे की तरह करते हैं।
कहानी राजस्थान विश्वविद्यालय और राजस्थान की राजनीति पर आधारित है लेकिन आप उत्तर भारत के किसी भी राज्य से हों आपको कहानी का हर चरित्र कमोबेश जाना-पहचाना लगेगा। मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सभी परिचित से लगते हैं और उनकी चर्चा होते ही हमारी आँखों के सामने कोई न कोई चेहरा आ ही जाता है। राज्येश सिंह राठौड़ उत्तर भारत के हर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री की तरह, तो सिकंदर बेनीवाल हर तत्कालीन शिक्षामंत्री का चेहरा लेकर चलते हैं। साथ ही प्रशासन का सदुपयोग और दुरुपयोग अपने राजनीतिक फायदे के लिए कैसे किया जाता है इसका दृष्टांत भी जगह-जगह इस उपन्यास में आपको मिलेगा।
राजनीति का कोई भी पक्ष इस उपन्यास में अछूता नहीं है, नेता और व्यापारी के गठजोड़ के जो किस्से हम आए दिन समाचारों में सुनते, देखते रहते हैं उनका स्वरूप कैसा होता है उसका पूरा घटनाक्रम इस उपन्यास में असलियत और विस्तृत तरीके से बयाँ किया गया है। राजनीती में धन की कितनी और कैसी अहमियत है ये उपन्यास इस बारे में सबकुछ बताएगा। राजस्थान की राजनीती में आज भी महाराजाओं का कितना दखल है और उनकी कितनी सुनवाई है इस बात का अंदाज़ा ये उपन्यास पढ़कर लग जाएगा।
उत्तर भारत की राजनीति में जातिवाद का बड़ा अहम योगदान है, सत्ता के सारे समीकरण अंततः इस मुद्दे पर आकर वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं।राजनीति के इस पक्ष को किताब में खूब गहन तरीके से बताया गया है।जातिवाद किस तरह जनता के लिए जहर और सत्ता के लिए संजीवनी का काम करता है ये इस किताब को पढ़कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
जनता स्टोर को केवल राजनीति पर आधारित एक पोथा कहना भी इस किताब की रचना के साथ अन्याय होगा, हाँ मुख्य पक्ष राजनीति जरूर है लेकिन जिस तरह से ये किस्सा चार युवाओं की दोस्ती, उनके साझा जीवन, खून में जवानी का उबाल और पहले-पहले इश्क की सोंधी खुशबू को एक साथ समेटकर चलता है वो किसी भी तत्कालीन युवा, बल्कि यों कहें कि समकालीन युवा का भी जीवन-चरित्र बनकर उभरता है।
जनता स्टोर कहने भर को एक किस्सा या एक उपन्यास है लेकिन यदि हम राजनीतिक तौर पर थोड़े भी जागरूक हैं तो किताब को पढ़कर ऐसा लगेगा कि कोई उपन्यास नहीं बल्कि कुछ राजनीतिक घटनाओं की समय-यात्रा से उसके अंदरूनी सच के साथ रूबरू हुआ जा रहा है।
इतने रोचक उपन्यास पर बहुत सी अच्छी बातें की जा सकती हैं लेकिन लेखक इस उपन्यास के माध्यम से समाज को जिस सच से रूबरू कराना चाहता है उसपर ज्यादा बात हो तो पाठक की समझ भी थोड़ी बढ़ती है। ये उपन्यास अपनी किस्सागोई के माध्यम से समकालीन राजनीति का हूबहू चेहरा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है, राजनीति का जो घोर नकारात्मक पक्ष है जिसकी वजह से अच्छे लोग राजनीति से कन्नी काटते दिखते हैं उस वजह को भी उपन्यास के उपसंहार में जगह मिली है। निशांत और दुष्यंत की दर्दनाक और असमय मृत्यु का कारण राजनीति ही बनती है और उनकी मौत पर राजनीति करके फिर कुछ लोग सत्ता के करीब पहुँच जाते हैं। भारत की राजनीति में ये एक परंपरा बन चुकी है। बहुत सी राजनीतिक मौतें समय दर समय होती रहती हैं और बड़ी सफाई से उन पर पर्दा डाल के और उसी की सहानुभूति का लाभ उठाकर लोग अपनी राजनीति चमकाने में सफल हो जाते हैं ।
उपन्यास की सबसे मार्मिक पंक्तियॉँ जो एक साथ व्यवस्था और मानवता दोनों को आइना दिखाती हैं- "हमारे यहाँ रेप के मामलों में जो अपराधी होता है, उसे सजा मिलेगी कि नहीं; कोई नहीं कह सकता। लेकिन जिसके साथ यह दुर्घटना हुई हो, उसे दोतरफ़ा सजा मिलती है। पहली बलात्कार से मिला मन और तन का घाव, दूसरी समाज से मिला तिरस्कार और घृणा जो उसे मानसिक रूप से कमज़ोर करता है। उसके साथ अपने घर के लोग भी ऐसे बर्ताव करते हैं, जैसे गलती अपराधी ने नहीं, लड़की ने ही की हो”।
उपन्यास कहीं भी अपने लय से भटकता या बहकता नहीं प्रतीत होता बल्कि पूरे कथानक को साधकर चलता दिखता है। जनता स्टोर स्वयं में एक पूर्ण उपन्यास है, इसमें व्यंग भी है, युवावस्था की उमंग भी है, पहले-पहले इश्क की खट्टी-मीठी यादें भी हैं, निशांत और दुष्यंत की मौत की हृदय विदारक भावनाएँ भी हैं।
मित्रता, परिवार, व्यवस्था, राजनीती सबकुछ एक ही किताब में उपलब्ध होकर इसको परिपूर्ण करती हैं। जनता स्टोर कहने को तो काल्पनिक उपन्यास है लेकिन इसमें कल्पना उतनी ही है जितनी सच के आसपास उभर आती है।फिल्मी भाषा मे कहें तो ये पूरा उपन्यास सच्ची घटनाओं पर ही आधारित प्रतीत होता है।
राजनीति में रुचि है तो ये उपन्यास पढ़िए, और नहीं है तब तो ज़रूर पढ़िए; उस सत्ता को, व्यवस्था को समझने के लिए जिसका त्यक्त हिस्सा हम आप भी हैं। और सबसे बड़ी बात कि इसमें आप ऊबेंगे नहीं, किस्सागोई आपको बाँध के रखेगी। आप किसी भी उम्र, वर्ग या विचार से आते हों आपके काम का कुछ न कुछ इस उपन्यास में मिल ही जाएगा।
और हाँ, इस "कहानी के पीछे की कहानी" जो उपन्यास के प्रारंभ में ही है उसको ज़रूर पढ़िए, थोड़े अपनत्व बोध का अहसास भी होता जाएगा।
बाकी जनता स्टोर आपको अच्छा खासा जयपुर की सैर भी कराती हुई चलती है, अड्डेबाजी के शौकीन लोगों को जयपुर के अड्डों की लिस्ट इस किताब से मिल जाएगी।