पाठशाला में आप पढ़ रहे हैं - "हिंदी साहित्य का इतिहास | आदिकाल "
सामान्य परिचय
प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है। उस समय जैसे 'गाथा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही 'दोहा' या 'दूह' कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्य भाषा का पद्य समझ जाता था। अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदातयक रचनाओं के भीतर विक्रम की सांतवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। मुंज और भोज के समय (संवत १०५०) के लगभग तो ऐसी अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में भी पाया जाता है। अतः हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत १०५० से लेकर संवत १३७५ तक अर्थात महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है । यद्यपि जनश्रुति इस काल का आरंभ और पीछे ले जाती है और संवत ७७० में भोज के पूर्वपुरुष राजा मान के सभासद पुष्य नामक किसी बंदीजन का दोहों में एक अलंकार ग्रंथ लिखना बताती है, पर इसका कहीं कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब की रचनाएं दोहों में मिलती हैं।
दूसरी बात इस आदिकाल के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य यह है कि इस काल की जो साहत्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमें कुछ असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध हैं। असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात प्राकृताभास है हिंदी है। इस अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी का अभिप्राय यह है कि उस समय की यह उस समय की ठीक बोलचाल की भाषा नही है जिस समय की इसकी रचनाएं मिलती हैं। यह उस समय के कवियों की भाषा है। कवियों ने काव्य परंपरा के अनुसार साहित्यिक प्राकृत के पुराने शब्द तो लिए ही हैं, विभक्तियाँ, कारक चिन्ह और क्रियाओं के रूप आदि भी अपने समय से कई सौ वर्ष पुराने रखे हैं। बोलचाल की भाषा घिस-घिसाकर बिलकुल जिस रूप में आ गई थी सारा वही रूप न लेकर कवि और चारण आदि भाषा का बहुत कुछ वह रूप व्यवहार में लाते थे जो उनसे कई सौ वर्ष पहले से कवि परंपरा रखती चली आती थी।
कालविभाग