वसंत रामचंद्र शुक्ल
वसंत
रामचंद्र शुक्ल | अद्भुत रस | आधुनिक काल(1)
कुसुमित लतिका ललित तरुन बसि क्यों छबि छावत?
हे रसालग्न! बैरि व्यर्थ क्यों सोग बढ़ावत?
हे कोकिल! तजि भूमि नाहिं क्यों अनत सिधारी?
कोमल कूक सुनाव बैठि अजहूँ तरु डारी।
(2)
मथुरा, दिल्ली अरु कनौज के विस्तृत खंडहर;
करत प्रति-ध्वनि; आज दिवसहू निज कंपित स्वर।
जहँ गोरी, महमूद केर पद चिद्द धूरि पर;
दिखरावत, भरि नैन नीर, इतिहास-विज्ञ नर।
(3)
और विगत अभिलाष सकल, केवल इक कारन;
जन्म-भूमि अनुराग बाँधि राख्यो तोहि डारन।
तुव पूर्वज यहि ठौर बैठि रव मधुर सुनावत;
पूर्व पुरुष सुनि जाहि हमारे अति सुख पावत।
(4)
तिनकी हम संतानपाछिलो नात विचारी;
कोकिल, दुख-सहचरी बनी तू रही हमारी।
हे हे अरुण पलाश! छटा बन काहि दिखावत?
कोउ दृग नहिं अन्वेष मान अब तुम दिसि धावत।
(5)
करि सिर उच्च कदंब रह्यो तू व्यर्थ निहारी;
नहीं गोपिका कृष्ण कहीं तुव छाँह बिहारी।
रे रे निलज सरोज! अजहुँ निकसत लखि भानहिं;
देश-दुर्दशा-जनित दु:ख चित नेकु न आनहिं।
(6)
ये हो मधुकर वृंद! मोहि नहिं कछु आवत कहि;
कौन मधुरता लोभ रह्यो बसि दीन देश यहि।
चपल-चमेली अंग स्वेत-अभरन क्यों, धरो?
मुग्ध होन की क्रिया भूलिगो चित्ता हमारो।
(7)
दीन कलिन सों हे समीर! बरबस क्यों छीनत;
मधुर महक, हित नाक हीन हम हतभागी नत।
एक एक चलि देहु नाहिं क्यों यह भुव तजि के?
हम हत भागे लोग योग नहिं तुव संगति के।
(8)
विगत-दिवस-प्रतिबिंब हाय सम्मुख तुम लावत;
भारत-संतति केर विरह चौगुनो बढ़ावत।
अहो विधाता वाम दया इतनी चित लावहु;
देश काल ते ऋतु वसंत को नाम मिटावहु।
(9)
नहिं यह सब दरकार हमें, चहिए केवल अब;
उदर भरन हित अन्न, और किन हरन होहि सब।
नहिं कछु चिंता हमें चिद्द-गौरव रखिबे की;
नहीं कामना हमें 'आपनो' यह कहिबे की।।
अपने विचार साझा करें
परिचय
"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।
Frquently Used Links
Facebook Page
Contact Us
Registered Office
47/202 Ballupur Chowk, GMS Road
Dehradun Uttarakhand, India - 248001.
Tel : + (91) - 8881813408
Mail : info[at]maatribhasha[dot]com