उलझी हुई रातें मिलीं सोम ठाकुर
उलझी हुई रातें मिलीं
सोम ठाकुर | शृंगार रस | आधुनिक कालउलझी हुई रातें मिलीं
बिखरे हुए -से दिन मिले
बिछुड़ा किए बिछुड़े बिना
मिलते रहे हम बिन मिले
तैरी शिलाए ऊब की
हिरनी सरीखी यह उमर
घूमी -फिरी, उछली गिरी
भ्रम की लहर में डूबकर
हम कौन से परकाल से
नापें समय का बांकपन
सिमटी हुई सादिया मिलीं
फैले हुए पल - छीन मिले
यह धूप -छांही ऋतुपरी
कैसे भुलावे से भरी
पतझर की ज़िंदा हँसी
गूंजान खुश्बू अधमरी
चढ़ते-उतरते मिल गई
यह ज़िंदगी जैसे कहीं
महकी हुई वादी मिले
बहकी हुई कमसिन मिले
खुद अजनबी होते हुए
कैसे रखे पहचान को
सपना बनाएँ भोर का
किसकी धुली मुस्कान को
यह प्यार ऐसा बेख़बर
यह पीर ऐसी विषमयी
जैसे कमाल की छांह में
जागी हुई सांपिन मिले
दहशत घिरा है रतजगा
हर शाम घबराहट भरी
सुनसान निचले ताल पर
जैसे हवा हो ऊपरी
पिछले जनम की एक
भूखी प्यास फिर हमको मिली
जैसे की टूटे बुर्ज पर
भटकी हुई डाकीन मिले
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परिचय
"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।
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