अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़  जॉन एलिया

अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़ 

जॉन एलिया | शृंगार रस | आधुनिक काल

अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़ 
वो बरसों बाद जब मुझ से मिला है
भला मैं पूछता उससे तो कैसे
मताए-जां तुम्हारा नाम क्या है?

साल-हा-साल और एक लम्हा 
कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

दौर-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
अहद-ए-वाबस्तगी को भूल गया
यानी तुम वो हो, वाकई, हद है 
मैं तो सचमुच सभी को भूल गया

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में 
रस्म ही क्या निबाहनी होती 
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती 

दिल में जिनका निशान भी न रहा
क्यूं न चेहरों पे अब वो रंग खिलें 
अब तो खाली है रूह, जज़्बों से
अब भी क्या हम तपाक से न मिलें 

शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी 
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं 
आप, वो, जी, मगर ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

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