मैं पूछता हूँ पाश

मैं पूछता हूँ

पाश | शांत रस | आधुनिक काल

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक़्त इसी का नाम है
कि घटनाएँ कुचलती चली जाएँ
मस्त हाथी की तरह 
एक पूरे मनुष्य की चेतना ?
कि हर प्रश्न 
काम में लगे ज़िस्म की ग़लती ही हो ?

क्यूँ सुना दिया जाता है हर बार 
पुराना चुटकुला 
क्यूँ कहा जाता है कि हम ज़िन्दा है
जरा सोचो -
कि हममे से कितनों का नाता है 
ज़िन्दगी जैसी किसी वस्तु के साथ !

रब की वो कैसी रहमत है 
जो कनक बोते फटे हुए हाथों-
और मंडी के बीचोबीच के तख़्तपोश पर फैली हुई माँस की 
उस पिलपली ढेरी पर,
एक ही समय होती है ?

आख़िर क्यों 
बैलों की घंटियाँ
और पानी निकालते इंजन के शोर में 
घिरे हुए चेहरो पर जम गई है
एक चीख़तीं ख़ामोशी ?

कौन खा जाता है तल कर 
मशीन मे चारा डाल रहे 
कुतरे हुए अरमानों वाले डोलो की मछलियाँ ?
क्यों गिड़गिड़ाता है 
मेरे गाँव का किसान 
एक मामूली से पुलिसए के आगे ?
क्यों किसी दरड़े जाते आदमी के चौंकने के लिए 
हर वार को
कविता कह दिया जाता है?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

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