
नजरिया
मैं स्वाधीन हूँ,
मगर बंद पिंजरे में !
मैं स्वतंत्र हूँ,
मगर विचारो तक !
मैं पूजनीय हूँ,
मगर तस्वीरो में !
मैं पुरुष-सम हूँ,
मगर घूँघट में !
मैं श्रद्धा योग्य हूँ,
मगर खोखले शब्दो में !
हाँ मगर फिर भी मैं,
पीड़ित हूँ, कुंठित हूँ, प्रताड़ित हूँ,
समाज और उसके नजरिये में !