
जौहर
सिंघनाद जब हुआ प्रबल उस मेवाड़ी प्रासाद में,
अक्षय सूरमों का टोला तब डूब गया अवसाद में
राणा के चित्तोड़ द्वार पर एक पापी प्रहार हुआ,
राजा रतन सेन के उर पर खिलजी का रण वार हुआ
जिन वीरों की रणधीरों की शौर्यशिला पुरुषार्थ रही थी,
उनके रक्त रहित रूहों की ग्लानि गुहा यथार्थ रही थी,
वहीं कहीं पे शमशीरों की , शेरों की टंकार हुई ,
शीश कटा इक परमवीर का, त्राहि-त्राहि चित्कार हुई
विलख उठा जब राजमहल और तुरक ध्वजा स्वीकार्य हुई,
प्रभुता की कुलदेवी, बलिवेदी जाने को अनिवार्य हुई
तभी दुर्ग के अंतःपुर की आभा बोली यलगार है,
'अरि जिनके सम्मुख बैठे उनका जीवन धिक्कार है'
यह आभा थी सुमन सुता, सौंदर्य सुधा अभिमानी थी,
कलानिधी की चमक झुठलाती वह मर्दानी, पद्मिनी रानी थी
उठा वेग गोरा के अंदर , चिंगारी जल काल हुई,
उसके कृपाण के परम तेज से खिलजी सेना लाल हुई
पर कहाँ विजय पा सका है कोई कपटी,छली,अज्ञानी से,
जिसके सर पर कामुकता का कीट चढ़ा उस प्राणी से
खिलजी ने तलवार उठाई काट दिया सिर पीछे से,
बूँद-बूँद फिर लहू गिरा,अभिषेक रुधिर के छींटे से
यह युद्ध विरोधी नीति देख रानी का तन-मन स्याह हुआ,
गुर्राई वह ,झपट पड़ी , दुश्मन सेना में हाह हुआ
सिद्ध शेरनी सी यह गति जूना के दिल के पार हुई,
रानी को पाने की हसरत तिल तिल कर भरमार हुई
अडिग नजर से देख रहा था वह पद्मिनी के हर वार को,
हर सैनिक के गिरते सामर्थ्य को,उनकी पीड़ा और हार को
जिसकी छवि पे मोहित हो, था टूट पड़ा मेवाड़ पे,
उसके भुजबल की छटां देख मदहोश खड़ा कीवाड़ पे
ईक-ईक कर मर गए रथी जब, रानी की सेना पस्त हुई,
पल-पल लड़ती उस अबला की ओज,शक्ति नतमस्त हुई
तब रावण से बचने को सीता ने प्रभु का नाम लिया,
दौड़ी पहुंची भवन मध्य और धमनदीप को थाम लिया
सोलह हजार की संख्या थी मेवाड़ कुल में वनिताओं की,
अपनी लज्जा की रक्षा करती जगमग दीप्ति शिखाओं की
रानी की जलती मशाल से चन्दन को पहली आग लगी,
रो पड़ी थी उस दिन मानवता,विपुल धरा को दाग लगी
अनल देव भी मनुज धर्म के मरने पे शायद रोते थे,
क्रूर चिता को लपट समर्पित करने को बागी होते थे
एक साथ 'जौहर' पावक धारण करने का ध्यान चला,
अपने चरित्र को अग्नि समर्पित करने का स्नान चला
धूं-धूं कर जलती तन ढेरी,धूआँ-धूआँ राख हुई,
जला वहीं पर वेद सार और मानुषता की साख मुई
वह आग अभी तक बुझी नहीं, हर खिलजी को यह ध्यान रहे,
लगते लगते ही आग लगी थी,हर राख का सबको ज्ञान रहे