द्वंद्व
इस रास्ते पर अनजाने से कई मोड़ हैं
कौन जाने रुख हवा का किस ओर है
इस छोर पर हम खड़े है
उस छोर रिश्तों की नाजुक सी डोर है।
उलझे हुए हैं तार बहुत
फिर भी कविता मुक्तछन्द है
जीवन प्रतिपल नवीन द्वन्द है।।
ओढेंगे कंबल, रात सर्द है, पर हवा चाहिए
फिर खाँसेंगे, सीने में दर्द है, दवा चाहिए
इतने में जी नहीं भरा,
दिल है, बड़ा बेपर्द है, कुछ जवाँ चाहिए।
अरे वैद्यराज जरा रुको, सुना है
ये रोग बड़ा अक्लमन्द है
जीवन प्रतिपल नवीन द्वन्द है ।।
न सही समर गर्जना, राग तो है
माना चिन्गारी है, पर आग तो है
इस चिकनाई पर ईठलाना क्या?
तुम्हारी सदरी पर दाग तो है ।
मीनार-ए-जनतंत्र खुदा इमारत पर
द्वार प्रवेश के सब बन्द हैं
जीवन प्रतिपल नवीन द्वन्द है ।।