आधुनिकता

जाने कंहा खो गया है बचपन,
मिल नहीं रहा है ढूंढे से भी,
क्या करूँ कंहा से लाऊँ, कैसे दिखाऊ इनको में,
कैसा सुहावना होता था बचपन,
घर से बाहर जाना, यारों के साथ की वो मस्ती,
कैसे जताऊँ इनको में, बागों के वो आम, जंगलो के बेर,
कैसे चखाऊँ इनको में, वो गिल्ली-डंडे का खेल, वो काल्पनिक राजा की सभा,
वो दोड़ने की स्पर्धा, वो नये - नये खेल,
कैसे सिखाऊ इनको में, कोशिश भी की थी, पर कुछ फायदा नहीं,
आज कल तो सभी व्यस्त है, चाहे वो दूध पीता बच्चा ही क्यों न हो,
करे भी क्या, जो भी है समय के साथ ही है, उसको कोन मात दे सकता है,
काश सीख पाते ये सब भी की कंप्यूटर और मोबाइल के बाहर की दुनिया भी अच्छी है,
पर उनके पास भी तो समय नहीं, आधुनिकता अच्छी है, पर खुद को भूलना तो अच्छा नहीं,
पर अब ये सब बताने से कुछ फायदा नहीं, क्योंकि जो होना तो वो हो वो चुका है,
उसको बदलने से कोई फायदा नहीं......

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