आगाज
हिमालय को देख अगर गंगा रुक जाती
समतल तक कभी न वो आती
मिलता न उसे सागर को पाने का राज
जो न करती वो आगाज़।
देख के नभ जो सर चक्राते
दर इरादों पर हावी हो जाते
कभी न बन पाता वो बाज़
जो न करता वो आगाज़
अंधियारा में जीवन खोता
बल्ब का सपना सच न होता
अगर जो मन लेता वो हार
और न करता फिर से आगाज़।
मंजिल कब आसन है
हिम्मत में ही जान है
जीत की तो बस
आगाज़ ही पहचान है।
एक नही तो दूसरी बार
करते रहो तुम बस आगाज़
आगाज़ ही सुरुआत है
और अंत भी अहम् आगाज़ है।