
मेरी किताब मेरी प्रियतमा
देखु तुम्हारे सामने तो,
एक नशा सा छा जाता है !
अरे रुक थोड़ा निहारने दे,
इसकी अऩदर कि सुऩदरता को पहचानने दे।
पल भर रुक कुछ पाने तो दे,
पर नशा एेसा होता है कि
तुम्हारे सामने आते ही तुम्हारे आहाेश मे खो जाती हूँ।
कभी मेरे मुख पटल पर होती हो,
तो कभी मेरी बाँहों मे,
कभी मेरे ऊपर होती हो तो,
कभी मेरे नीचे ,मेरी रात से रात तक की साथी हो तुम ।
दूर तुम्हें देख कर रह नहीं पाती हूँ,
लपक कर तुम्हें अपने पास ले आती हूँ।
पाके तुम्हें पास अपने ,संपन्न हो जाती हूँ
रखकर तुम्हें कभी अपनी आँखों पर
आैर कभी रखकर अपना सिर तुम पर,
आराम से मैं सो जाती हूँ।