
तुलना और समर्पण
क्या फर्क है तुममें मुझमें,
सोचा यूं ही अंतर्मन में
अगर मैं उच्छाह भरी नदी हूँ,
तो तुम शांत आकाश हो।
सीमित तटों में भी मेरा गुरूर विस्तृत है
और तुम विस्तृत की सीमा पाकर भी शांत हो।
चंद प्रांतों की भूमि छूकर अपनी व्यापक्ता पर इतराई,
और तुम सर्वव्यापी होकर भी जरा भी मान न कर पाई।
गर्व है इस बात का कि जीवन स्त्रोत हूँ इस धरा पर,
मुझ जैसे लाखों को प्राण दान का भी मान नहीं है जरा भी।
दिन की रोशनी में भी मेरी गहराईयों में अंधेरा पलता है,
अंधकार में भी तुम्हारा आँचल यामिनी बन प्रदीप्त होता है।
कई किमती पत्थर संचें हैं सबसे छिपाकर अपने आँचल में,
और तुम सूरज की रश्मियाँ लुटा देती हो दोनों हाथों से!
अब बोलो क्या तुलना होती मेरे कठोर पाषाणों की तुम्हारी कोमल, रोशन रश्मियों से ?
मुझे फिर भी गुरूर है ,तुम अब भी शांत हो!!
तुम्हारे जैसा बनने के अथक प्रयास करती हूँ,
तभी तो जब भी तुम ऊषा का रक्तिम रूप लेती हो,
मै भी तो सिंदूरी हो जाती हुँ।
जब दिन ढले तुम गुलाबी हो जाती हो,
तो मै भी इधर की उदासीनता से बगावत कर तुम्हारे रंग में रंग जाती हूँ।
जब तुम सूरज की रश्मियों से बुना वो महीन आँचल ओढती हो,
तब मैं भी तो सूर्य का प्रतिबिंब अपने आँचल में काढ लेती हूँ।
हर पूनम की रात माथे पर चांद सजा तुम आती हो,
तब मैं भी तो उसके प्रतिबिंब की बिंदी लगा लेती हूँ।
एक हवा का झोंका,और व्यर्थ सारे जतन, मिट जाता है तुम्हारा हर प्रतिबिंब,
टूट जाता है मेरे घमंड का हर बिंब!
पर अब विह्वल हूँ, तुम जैसा नहीं,तुम बनने को ही,
ज्ञात है मुझे ये इतना आसान नहीं।
गुजरना होगा इक लंबी यात्रा
जहाँ सिर्फ तपन है।
उस तपन में अपना गुरूर ही नहीं,अस्तित्व भी मिटाना होगा,
भाप बनकर कई कोस तक जाना होगा,
तब जाकर तुम्हारी विशालता का अंश मिलेगा।
यात्रा कठिन और रास्ते दुर्गम्य होंगें न ?
पर तुम जैसा बनना आसान कब था माँ!!