गांव और शहर
न जाने कितने वर्षो बाद,
लेटा हूँ खुले आकाश के तले,
देखता हूँ वो दूधिया चांदनी,
और टिमटिमाते तारें |
किरोसिन की वो डिबिया,
जो जल रही है कही दूर,
और वो बहती पुरबइया,
जैसे सुलाना चाहती हो नींद की गोद में |
सहसा ख्याल आता हैं,
कितनी दूर था मैं प्रकृति से,
अपार्टमेंट की बंद दीवारों में,
क्या कभी नीले आकाश को देखा था मैंने ......
रोशनी की चकाचौंध में,
जैसे अँधेरा भुला बैठा था मैं |
कंक्रीट के जंगलो में,
जहाँ शराफत की नकाब ओढ़े,
आदमखोर बसते हैं,
रात तो होती ही नहीं ,
जैसे होड़ लगी हो जागने की |
सुबह हुई,
बारिश आयी,
निकला देखा एक इंद्रधनुष,
जिसे पढ़ा था केवल किताबों में,
स्पष्ट मेरे सामने सतरंगी अद्धभुत |
काश गांव हमेशा रहे,
वो कभी न बन पाए शहर,
अंधी दौड़ की इस दुनिया में,
मेरे जैसा कोई अभागा,
कभी तो जड़ों को खोजता आएगा,
और गर्व करेगा की भारत गांव में बसता हैं,
जीवन सही मायनों में यही हँसता हैं |