वास्तव
सतह बस ईंट, बारूद, रोटी, अँधेरे की,
आँखों में मेरे रमती कोई और ही छवि,
गहरा मैं खोदता जाता हूँ, चश्मे पर रंग से पड़ते हैं,
इस रंग की स्याही मेरी कविता है, हूँ मैं इक कवि।
मन में कुछ ख्याल आते हैं, तो टकटकी बाँध लेता हूँ,
लोग सोचते ये बावरा घण्टों ना जाने कहाँ पर खोता है,
उन्हें बताओ, कि चलते हर शख्स में मुझे कविता नज़र आती है,
कि बेकार के किस्सों, बदसूरत हर चीज़ में कोई रस होता है।
उन्हें बताओ, कि मैं बारिश से भीगी ईंटों को देखता हूँ,
पानी, ये बेरंग पानी, कैसे लाखों रंग उढ़ेल जाता है,
कभी धुँआ सा उठने पर तस्वीर के रंग कैसे बदल जाते हैं,
ये बदलते नज़ारे, मानो चित्रकार हर घड़ी नया चित्र जगाता है।
उन्हें बताओ, कि मैं रौशनी और महक के गूढ़ स्वर में गूँजता गीत गाता हूँ,
मुस्कुराते चाँद से कभी, अपने होने कि वजह पूछता जाता हूँ,
भावों को नज़्म से जोड़, मैं तुमको इक आइना सा दिखलाता हूँ,
उथला नहीं हूँ मैं, खुद को आसपास से तनिक ऊँचा पाता हूँ।
खाली समय में मेरा एक पड़ोसी मुझसे बातें करता है,
परीक्षा की तैयारी में है, लक्ष्मी के गुण गाता है,
इस दुनिया की दुनियादारी में डूबा है बेचारा,
शोहरत का शौक है, संसार के सुख चाहता है।
मुझे उसपे तरस आता है, किस फेर में आखिर फँसा है,
ये रुपये और रुतबा उद्देश्य नहीं, ढकोसला है,
मैं महत्वाकांक्षाओं पर पहली कविता लिख जाता हूँ,
कि इनके सहारे कोई असली रस को पाता भला है?
कभी वो प्रियतमा और प्रेम की बातें लेकर बैठ जाता है,
रूठने मनाने में गुँथा, नहीं मालूम, इस पर कहीं जमूरियत टिकती है,
ये प्रेम इतने सुन्दर, इतने सारे रंगों को समेटता है,
कि मुझमें श्रृंगार की दूसरी कविता लिखने की चाह जगती है।
आज सुबह ही खबर आई, बगल की गुमटेवाली चल बसी,
विधवा थी, गरीब थी, बच्चा कुछ छः साल का था,
रो रहा था बच्चा, चीथड़े में एक लाश पड़ी थी,
कोई नातेदार नहीं; होता कैसे, घर का हाल क्या था?
वापस घर पहुँचने पर कई विचार हिलोरें मार रहे थे,
धड़्डले से शब्दों को जोड़ता गया, तीसरी कविता खड़ी थी,
जब लिखा हुआ पढ़ा, तो लगा ये मैं क्या लिख गया,
इससे मार्मिक कविता तो मैंने आज तक ना पढ़ी थी।
लगता था आज मेरा कवित्व, मेरा व्यक्तित्व और अस्तित्व, सार्थक होने को था,
मेरे नाम, मेरे काम को इक मुकाम मिल सकता था,
फिर अचानक एक आवाज़ आई और आकर सामने खड़ी हो गई,
क्या मुझ पर मेरी अभिलाषा का ऐसा जोर चल सकता था?
जोर ऐसा, कि मेरी सहृदयता, मेरा प्रेमभाव शून्य हो चला,
बच्चे को भूल, मैं शब्दों को सपनों के साज़ संग मिला रहा था,
मैं अंदर तक सहमा, दौड़कर वापस पहुँचा,
बच्चा भूखा था, मेरा नासमझ पड़ोसी उसे खाना खिला रहा था।