विश्वासघात

सामर्थ्य बचपन से ही पढ़ने में बहुत अच्छा था। हर कक्षा में प्रथम , हर प्रतियोगिता में आगे। माता - पिता को उसकी पढ़ाई के खर्चे के बारे में नहीं सोचना पड़ता था क्योंकि उसे हर वर्ष स्कॉलरशिप जो मिल जाती थी। इसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होकर आई आई टी कानपुर में दाखिला लिया और अपनी कुशलता के दम पर वहाँ भी अव्वल रहा। कॉलेज की फीस स्कॉलरशिप से भर जाती और बाकी खर्चों के लिए पिताजी पैसे भेज देते। कॉलेज का आखिरी साल आ गया था सभी लोगों ने आगे की जिंदगी के बारे में सोच लिया था और सामर्थ्य का लक्ष्य भी तय था। वर्ष 2003 जनवरी का महीना था, कॉलेज मैं बहुत सी बड़ी बड़ी कम्पनियां आ रही थी सभी छात्र बहुत उत्साहित थे। कम से कम दस कम्पनियों के इंटरव्यू हो चुके थे पर सामर्थ्य ने किसी में हिस्सा नहीं लिया कुछ मित्रों और अध्यापकों ने उससे पूछा भी कि वो ऐसा क्यों कर रहा है तो उसका जवाब रहता ये मेरा लक्ष्य नहीं है। ऐसे ही आखिरी साल पूरा हो गया और परीक्षा आ गयी। अब तक सामर्थ्य को मिला कर दो चार ही ऐसे बचे थे जिनका चयन किसी भी कंपनी में नहीं हो पाया था। सभी थोड़ा चिंतित और दुखी थे पर सामर्थ्य को देख कर ऐसा लगता था कि उसे कोई परवाह नहीं थी, वो अब भी खुश ही नजर आ रहा था। परीक्षा खत्म हुई सभी ने एक दुसरे से दोबारा मिलने का वादा किया और अपने अपने घर चले गए।

 

सामर्थ्य घर पहुंचा तो माँ , छोटा भाई सभी खुश थे पर उसके पिताजी के चेहरे पर चिंता दिख रही थी। खाना खाने के बाद सामर्थ्य दोस्तों से मिलने निकल गया और शाम को लौटा। शाम को उसे पिताजी ने अपने पास बुलाया और बोले , 'बेटा तुम्हारे सभी दोस्तों की नौकरी लग गयी है पर तुम्हारी नौकरी नहीं लगी मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है। तुम तो पढ़ाई में सबसे आगे रहे फिर भी ?' सामर्थ्य मुस्कुरा कर बोला , 'पापा आप चिंता मत करो मैंने अपने भविष्य की तैयारी कर ली है और मेरा लक्ष्य इनलोगों से अलग है। आप जरा रुकिए' इतना कहकर वो अपने कमरे की और गया और थोड़ी देर में कुछ कागज़ लेकर आया। कागज़ अपने पिताजी के हाथों में देते हुए बोला, 'ये देखिये , मैंने लंदन के सबसे बड़े कॉलेज में दाखिले की प्रतियोगिता पास कर ली है। इसके अलावा मैंने सरकार को अर्जी दी है कि मुझे आगे की पढाई के लिए स्कॉलरशिप दी जाय। मेरे अब तक के नतीजों को देखते हुए मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी अर्जी मंजूर हो जाएगी। ' पिताजी की चिंता अभी टली नहीं थी वो बोले , 'वो सब तो ठीक है लेकिन स्कॉलरशिप से तो केवल फीस का खर्च निकलेगा , बाकी के खर्चों का क्या होगा ? लंदन तो बहुत महंगी जगह है। ' सामर्थ्य ने सब पहले ही सोच रखा था , वो समझाते हुए बोला , 'आप चिंता मत कीजिए। पिछले चार सालों में मैंने अपना पूरा खर्च स्कॉलरशिप पर चलाया है , आपके भेजे पैसे मैं जमा करता रहा हूँ उससे टिकट का इंतजाम हो जायेगा और वहाँ खर्चा चलाने के लिए कुछ छोटा मोटा काम कर लूँगा। सभी वहाँ ऐसे ही करते हैं। जिस दिन मैंने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था तब से मैं ये सपना देख रहा था इसीलिए मैंने सारी जानकारी इकट्ठी कर ली थी और अब सपने को पूरा करने का समय आया है। '

 

कुछ ही दिनों में इंजीनियरिंग के नतीजे आ गए और हमेशा की तरह इस बार भी सामर्थ्य अव्वल रहा था। सारी तैयारी करके एक महीने बाद वो लंदन चला गया। वहाँ से वो हर पंद्रह दिन पर चिट्ठी भेजता था और दो महीने के अंतर पर पैसे जमा करके फ़ोन करता था। इसी तरह दो साल बीत गए और सामर्थ्य की पढ़ाई पूरी हो गयी। अब सभी इन्तजार कर रहे थे सामर्थ्य के वापस आने का लेकिन सामर्थ्य की ओर से कोई समाचार न मिलने से असमंजस में थे। थोड़े दिनों में उसका फ़ोन आया और उसने बताया कि उसकी लंदन में ही नौकरी लग गयी है और वो कम से कम एक साल तक नहीं आ पायेगा। सभी निराश तो हुए पर इस बात की ख़ुशी भी थे कि सामर्थ्य की विदेश में नौकरी लग गयी। अगले महीने से सामर्थ्य ने अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा घर भेजने लगा। लंदन के लिए जो मामूली रकम थी वो यहां पूरे घर के लिए महीने भर का खर्च और उससे भी ज्यादा था। धीरे धीरे ये एक रवैया बन गया, सामर्थ्य के पिताजी की सैलरी और सामर्थ्य के भेजे पैसों को मिलकर अब घर की आमदनी बहुत ज्यादा हो गयी और रहन सहन भी थोड़ा अच्छा हो गया।

 

एक दिन सुबह पार्क में घूमते हुए सामर्थ्य के पिता को उनके पुराने मित्र डॉ. दीप नरायन मिल गए।दोनों बहुत सालों के बाद मिलकर बहुत खुश हुए और एक दुसरे से गले मिले। उसके बाद दोनों वहीँ घास में बैठ कर बातें करने लगे।

सामर्थ्य के पिताजी ने बड़े गर्व के साथ अपने बेटे की उपलब्धियोँ के बारे में डॉ दीप को बताया। वो भी खुश हुए और बधाई दी। इसके बाद सामर्थ्य के पिता ने डॉ दीप से उनके बच्चों के बारे के में पूछा। डॉ दीप ने बताया उनके दो बेटों में से बड़े ने स्कॉलरशिप पर यूरोप से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की और अब लखनऊ में अपना छोटा सा नर्सिंग होम बना लिया है। छोटा बेटा इंजीनियरिंग कर रहा है। ये सुनकर सामर्थ्य के पिताजी थोड़ा गम्भीर होकर बोले, 'बुरा ना मानें तो एक बात कहूँ डॉक्टर साहब ?' डॉ दीप ने मुस्कुरा कर कहा , 'बेझिझक कहिये। ' सामर्थ्य के पिता ने अपनी बात शुरू की , ' डॉक्टर साहब आपका बेटा बहुत ही होशियार होगा तभी स्कॉलरशिप लेकर विदेश से पढाई कर पाया बिलकुल मेरे बेटे जैसा। मगर आपको नहीं लगता इतना पढ़ लिख कर वापस छोटे से शहर में काम कर के वो अपनी काबिलियत को व्यर्थ कर रहा है। यहां वो क्या कमा पाता होगा ? उसे भी मेरे बेटे की तरह विदेश में काम करना चाहिए था , अच्छी कमाई होती और वो अपने साथ साथ आपका भविष्य भी सुधार लेता। ऐसा सिर्फ मेरा मानना है बाकी आप खुद समझदार हैं। ' डॉ दीप के चेहरे के भाव बदल गए और वो गम्भीर आवाज़ में बोले ,' देखिये भाई साहब आपकी सोच को मैं गलत नहीं कहूँगा , हर एक की अपनी सोच होती है। मैंने भी विदेश में पढाई की थी और अपने शहर में आकर काम किया , उस समय कोई बड़ा डॉक्टर हमारे शहर में नहीं होता था। आप भी तो चाहते होंगे कि आपके शहर में बड़े डॉक्टर हों और आपको इलाज के लिए बाहर ना जाना पड़े। अगर सभी पढ़ लिख कर बाहर चले जायेंगे तो हमारे शहर और देश का विकास कैसे होगा ? फिर सरकार ने हमें जो स्कॉलरशिप दी पढ़ाई पूरी करने के लिए वो इसीलए ना की जो होनहार हैं वो अच्छी शिक्षा लें और विकास में मदद करें। ऐसे में सरकारी स्कॉलरशिप पर पढाई करके किसी दूसरे देश के लिए काम करना अपने शहर और देश के साथ विश्वासघात नहीं होगा ? और मुझे तो फ़क्र है कि मेरे बेटे के विचार मेरे जैसे ही हैं, अपने शहर में काम करना ये उसका अपना फैसला था। ' डॉक्टर साहब के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक थी।

सामर्थ्य के पिता सर नीचे करके सब सुन रहे थे पर उनके पास शायद कोई जवाब नहीं था।

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