बरसाती सपने Rahul Kumar Ranjan
बरसाती सपने
Rahul Kumar Ranjanनिकला था कल जो सूरज
सतरंगियाँ बिखेरकर।
नहीं पता था, ढल जायेगा
काले बादल घेरकर।
तूफानी हो बरसातें जब भी
छप्पड़ उड-उड़ जाते हैं।
टप-टप खप्पर रिसता है
हम अपनों से घिर जाते हैं।
फिर मन की मंडी में ही जाकर
कुछ नाव खरीदी जाती हैं।
बिन मोल भाव ही रखकर खुद को
कुछ घाव खरीदे जाते हैं।
नहीं पता था बरसाती दिन भी
इतने दुखड़े गाएँगे।
हँसते -हँसते इन आँखों से
दो बूंद निकल कर आएँगे।
फिर भी उम्मीदें पलती हैं
कि वो दिन भी, इक दिन आयेगा।
अपने घर भी छतरी होगी
और नींद से, हम सो जायेंगे।
अपने विचार साझा करें
बारिश के दिनों में जहाँ एक तरफ प्रकृति रानी सज धज कर निकलती है,जो हरी मख़मली कालीन सी बिछ जाती है जो जीवों में एक नया उल्लास भर जाती है,जहाँ यह प्रायः लोगों के मनोरंजन का मास माना जाता है,वहीं दूसरी ओर कुछ लोग रिसते हुए छप्परमें खुद को छिपाते हुए नज़र आते हैं यहाँ प्रस्तुत कविता झुग्गी-झोपड़ियों में ज़िन्दगी काटने वाले लोगों कीदशा का वर्णन करती है