मन की उड़ान Anucool Kumar Sharma
मन की उड़ान
Anucool Kumar Sharmaचंचल मन इतराता है फिर,
कहता है जी भर के उड़ ले,
करले अपनी हसरत पूरी,
सारी कड़ियाँ तोड़ के जी ले |
इस समाज से डरना कैसा,
ये तो कब से बोल रहा है
तोड़ के पथ के बंधन सारे
मंजिल को क़दमों कर ले ||
भय से मन घबराता है फिर,
कहता है की डर लगता है,
डर लगता है पंख फैलाऊँ,
और कही फिर उड़ ना पाऊँ,
गिर जाने से डरना कैसा ,
डर लगता है उठ ना पाऊँ ||
दृढ़ता से मन को समझाया,
अभी कौन सा उठे हुए हो,
दबे हुए हो, गड़े हुए हो ,
अभी कौन सा खड़े हुए हो,
पथ में कंटक रुके हुए हो,
सबसे पीछे खड़े हुए हो,
गिरे अगर तो कौन बुरा है,
नहीं उठे तो क्या बिगड़ेगा,
अगर उठे तो विश्व विजेता ,
ज्ञानी द्रोण ,गुणी विवेका,
अनहद को छूने के अभिलाषी ,
मनन छोड़ के अब तू उड़जा ||