मानसिक पतन Arpan Jain
मानसिक पतन
Arpan Jainउपहास और उलाहना समाज में साथ दौड़ते रहते हैं
जैसे कोई पतंगा भोजन की तलाश में भागता है
एक चौराहे के मानिंद मानता है समग्र शक्ति को
जहाँ कल्पित ज़िन्दगी का नाम गुजर भर जाना है
शहर की भाषा में आधी आबादी एक गहरा तंज है,
आदमी स्त्री को गहरे चिंतन में भी शक से देखता है।
इस शहर की मानसिक आत्मा को क्या हो गया है,
हर रंग में स्त्री को केवल उलाहना से ही नवाजता है।
हर लिबास में नारी उसे प्रेयसी ही क्यूँ नजर आती है?
शायद माँ का आँचल उसके मानस से उतर गया है।
शायद सभ्यताओं का यह शहर अब खोखला हो गया है,
दृष्टा में वाद -संवाद की भाषा भी कामुक-सी हो गई है।
दैहिक लाश को ही जीवन का अर्थ मानने वाला शहर,
चकाचौन्ध में तम का व्याकरण भी विचलित है ‘अवि’
भाषा के आवरण में भी शहर के संस्कार मर चुके हैं,
तभी तो नारी दिवालिये शहर में शोषण से पोषित है।