है भक्तवत्सल भगवत प्रिय  Arpan Jain

है भक्तवत्सल भगवत प्रिय

Arpan Jain

संगीत तुम्हारा, तान तुम्हारी, और सर्वस्व शान भी तुम्हारी है,
संकट में अकेली आस्था है, बेजान बांसुरी में जान भी तुम्हारी है...
प्राण-प्रतिष्ठा के बाद से तुम्हे देखने को तरस रही आँखे...
आखिर कौन-सी विडंबना की शिला
अहिल्या की तरह बुत बनकर तुम्हारे आंगन में आ खड़ी हुई है...
रघुनंदन को जिस उमंग और उत्साह से तुमने आमंत्रित किया था,
क्या उस उल्लास का पार तुमने पा लिया?
आखिर क्यों रघुवीर को तुम उस नवीन आलय में अकेला छोड़कर आ गए...
जी हाँ तुम ही...
यदि आराधना एक दिन का ही नाम है तो नफरत अब मुझे तुम ठेकेदारों से है...
जो दिखावट और झूठी शान के फेर में धर्म से खेलते रहते हैं ,
राम को सहपरिवार निमंत्रित कर के एकाकी कर देते हैं..
क्या तुम पेशेवर हो, जिसका काम सरे आम आस्था को बेचना हो?
जवाब दो , चेतना के दिवाकर जवाब दो..
एक पुष्प न अर्पण कर सके जो इतने निर्लज्ज क्यों बने तुम...
एक ब्राह्मण जो तुमने चंद कागज के टुकड़े देकर राम से मिलने के लिए भेज दिया, 
पर क्या तुम्हारा फर्ज नहीं अपने मेहमान के साथ घड़ी भर बात कर लेने का..
खैर उधार के सिन्दूर से मांग तो भर दोगे पर,
अखण्ड सौभाग्य उधार नहीं मिलता जगत में...
बनाओ जितने चाहे मंदिर, मस्जिद और शिवालय,
पर यदि रोज मिलने नहीं जा सकते तो किसी आगंतुक को
घर बुलाने का अधिकार तुम्हारा नहीं...
अर्चना का नैतिक जिम्मेदार तुम्हारा जमिर भी है...
पर दशरथनंदन को एकांत करने का अधिकार तुम्हारा नहीं ..
खैर...जो गया वो नहीं लौटता,आगे से ध्यान का ख्याल रहे...

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