जलने दो मुझे Vivek Tariyal
जलने दो मुझे
Vivek Tariyalजलने दो मुझे, शायद कहीं उजियारा ही कर दूँ,
किसी चौखट पर फैलते हाथों में, उम्मीद ही भर दूँ।
किसी के चीखते मन को, शांत ही कर दूँ,
किसी शिशु के स्वप्नों में, रंग ही भर दूँ।
जलने दो मुझे, तुम्हारे लिए रौशनी हो रही है,
तुम्हारे भीतर कैद सच्चाई, अँधेरे में रो रही है।
आँखों पर पट्टी डाले, तुम्हारी चेतना सो रही है,
तुम्हारे भीतर की मानवता, निज विश्वास खो रही है।
जलने दो मुझे, कि चेतना त्याग माँगती है,
ठंडी पड़ी युवा धमनियाँ, आग माँगती हैं।
कुछ सरल निश्छल आँखें, जवाब माँगती हैं,
बच्चों की कोमल संवेदनाएँ, ख्वाब माँगती हैं।
जलने दो मुझे, कि कहीं कोई आशा में खड़ा है,
कदाचित, उसके भीतर का इंसान, अभी नहीं मरा है।
मुझे जलता देख, शायद वह खड़ा हो जाएगा,
मुरझाया हुआ अंतःकरण शायद, फिर हरा हो जाएगा।
जलने दो मुझे, कुछ देर ही सही, उजाला हो जाएगा,
सुदूर कहीं कोई व्याकुल मन, चैन से सो जाएगा।
कुछ क्षण हेतु ही सही किन्तु, उसे विश्वास हो जाएगा,
कि उसके भविष्य रक्षण हेतु, कोई लाल धरा पर आएगा।
जलने दो मुझे, यही मेरा जीवन लक्ष्य है,
परमपिता परमेश्वर को भी, मुझसे यही अपेक्ष्य है।
निज दाह से जग रौशन होना, यह बड़ा उपलक्ष्य है,
मानव धर्म हेतु त्याग ही, इस जीवन का परिप्रेक्ष्य है।
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आज जहाँ मानव मूल्य अपना दम तोड़ रहे हैं, सिसकती हुई आवाज़ें मदद के लिए पुकार रही हैं, मानवता अपनी बदहवासी पर क्रंदन कर रही है वहीं लोगों की चेतना लड़कपन के सपनों की भांति कहीं लीन है। किन्तु आज भी समाज में खुद को जलाकर दूसरों के हेतु रौशनी करने वाले लोग मौजूद हैं, जो स्वयं सुखों का त्याग कर दूसरों के हित जीते हैं। ऐसे लोगों को नमन करती यह कविता उनके मनोभावों की एक अभिव्यक्ति है।