विकराल समय और आशा  Sachin Khandelwal

विकराल समय और आशा

Sachin Khandelwal

है समय बड़ा विकराल आज, कितनों के मान उछलते हैं
इक अबला को डस जाने को, कितने हैवान मचलते हैं
प्रति-क्षण भेड़िया नज़रों से, नग्न-भग्न रूह होती है,
इज़्ज़त की चिता सुलगती है, सपनों की आँखें रोती हैं
दैत्य पहनकर ताज देव का, खुला स्वांग अब रचते हैं
देह फूँक कर निर्दोषों की, दोषी तो अब भी बचते हैं
कुल-मर्यादा के पोषक , ऊपर से भक्षण करते हैं
ना संबल का दरिया बनते, ना न्याय का रक्षण करते हैं…
 

आशा है इक दिन, समय नेत्र खोलेगा
फिर जगत् अबला को, पूज्य देवी बोलेगा
आशा है इक दिन दुष्टों से, जगदम्बा रूठेगी
फिर से महिषासुर पर, दुर्गा बनकर टूटेगी
आशा है इक दिन, नर राम रूप में होंगे
फिर प्रताप-चौहान सम वीर, नारी के रक्षक होंगे
और आशा है इक दिन, भ्राता का सच्चा बांधव होगा
अन्यथा घोर पाप के अंत हेतु फिर शिव का तांडव होगा…

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