ओज-एक लक्ष्य sachin rai
ओज-एक लक्ष्य
sachin raiसंशययुक्त उन आँखों को,
दर्द से थी जो व्याकुल
काश कोई उन्हें दिखा दे,
ऐसा पथ ओज का,
जहाँ न कोई प्रकृति की निजता ,
जहाँ न रुकता ऐसा पल,
नदी की धारा जैसा सिर्फ
एक समनवय एक ही कल-कल
अचरता के सदिश,
निःशब्द आज वो
विवेकरहित गुलशन में,
कहीं खो गए कल में,
कहीं खो गए आज में,
सर्वमयी दान ऐसा हो,
कि मान में अभिमान हो,
दर्द भरी आँखों में,
आँसू का सम्मान हो,
अतीत को आज से,
सर्वजन पिरो दो कि
भविष्य में भी आज से,
अतीत का मुकाम हो |
प्रकृति की बंदिशों में,
काल को बांध दो,
कि दुःख, दर्द, विलाप भी,
हर्ष का ग़ुलाम हो,
ऐसा वक़्त जब समक्ष होगा,
हर दुःख का अर्थ मिट जाएगा,
उस प्रेममयी राष्ट्र को,
मेरी स्वयता का सलाम हो |
