मैं आगाज़ देखता हूँ  sachin rai

मैं आगाज़ देखता हूँ

sachin rai

तेरी दिशा में जाकर तुझसे पूछता हूँ,
सुबह की रोशनी में खुद को देखता हूँ,
हो ऐसा ही उजाला उम्र भर
तो सुबह की लालिमा में खोकर,
अनवरत मिठास देखता हूँ
पवन के झोकों में भी ,
एक नया आगाज़ देखता हूँ
दिन ढलते ही नई दुनिया में आकर,
सरस पुष्पों में भी संताप देखता हूँ
आगे आने पर खिलते चेहरों में भी,
क्रंदनयुक्त आवाज़ में भी विलाप देखता हूँ
आशाओं भरे चेहरों पर,
शंकित सुहाने सपनो में,
कठिनाइयों की आड़ में भी आट देखता हूँ
सपनो को लेकर जग जाओ
बेफिक्र शाम को छोड़कर
तभ भी आशान्वित मंजिल पर
सूक्ष्म सी किरण में प्रकाश देखता हूँ ,
उत्साह में भी जोश हो
व्यग्रता में आग हो,
तब आँसुओं की बूँद में,
भी अमृत देखता हूँ
दर्द को महसूस कर
सर्वत्र एक हो जाओ
तो अग्नि भरे हृदय में भी आस देखता हूँ
एक अंजुल उस तरफ भी
सर्वसाथी मोड़ दो ,
तो रात में भी दीन का विकास देखता हूँ
काल को ललकार दो,
उसके भी संग हो चलो,
तो दावाग्नि में भी हृदय का ओज देखता हूँ
कसम अपने राष्ट्र की
सर्वांगीण होकर चले चलो
तब इस चक्र में, अभिमानरहित
मानुष को सर्वजन में देखता हूँ।

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