अभिमान Vivek Tariyal
अभिमान
Vivek Tariyalदम्भ दर्प में चूर मनुज का कोई न रहा सहारा,
अंत काल में नियति पाश से परास्त हुआ बेचारा।
अभिमान में सम्मान खोजते भटक रहे सब इस जग में
कटुवचनों से अहंकार को पोषित करते पग-पग में।
सरल सहज अपने इस मन को क्यों मैला तुम करते हो?
अपने धन, सत्ता, शक्ति का किसे प्रदर्शन करते हो?
जब गौरव निज अंतर्मन का घमंड बन जाता है,
विवेक पराजित हो जाता और नाश मनुज पर छाता है।
अहंकार न टिका कभी रावण जैसे ज्ञानी का,
खंड-खंड हो गया दर्प दुर्योधन अभिमानी का।
दया, विनय को हृदयस्थली में स्थान जब देता नर है
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में, हो जाता अजर अमर है।
विनय पताका फहरानी है, इस पाप-पुण्य संग्राम में,
अहंकार की होगी हार, निश्चित ही युद्ध विराम में।
संतोषी बनकर ही हमको, गंतव्य प्रकाशित करना है
सत्य और निष्ठा वेदी पर, प्राणों को अर्पित करना है।
अहंकार के पथ पर चलने का कुफल यही होता है,
अंतरात्मा के सम्मुख सम्मान मनुज खोता है।
हो जाता है अलग थलग अपनों के संसार से,
सामाजिक कुटुंब से, मित्रों से और निज परिवार से।
गौरव दम्भ न बनने पाए, यह रखना हमेशा ध्यान है
मानव मूल्यों में शीर्षस्थ स्थान ही सच्चा गौरवगान है।
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ऐसा कहा जाता है कि अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जिस मनुष्य के अंदर विनम्रता, दया और क्षमा का स्थान अभिमान, दंभ और दर्प ले लेते हैं वह जीवन लक्ष्य से पथभ्रमित होकर नाश की ओर अग्रसर हो जाता है। यह कविता सभी लोगो को सन्देश देती है कि हमें अपने स्वाभाव में तमोगुण नहीं आने देना है और समाज में सभी के साथ सद्भाव और अच्छा आचरण बनाए रखना है।