भूख Vivek Tariyal
भूख
Vivek Tariyalहाथ फैलाए हुए, बांधे हुए गठरी कमर पर,
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
न कोई उसका धर्म है, न कोई जाति विशेष है,
दबे स्वर हैं, मुख प्रकम्पित, श्वास ही बस शेष है।
दर-दर की ठोकर भाग्य लेकर, निकली है जीवन समर पर,
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
उसका कोई डेरा नहीं है, न ही कोई परिवार है
लक्ष्य है बस पेट भरना, भाग्य से लाचार है।
मृत्यु को ही मोक्ष माने, काटती है दिन उमर भर
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
किवाड़ खटकती है सारे, दो रोटी की आस में,
संवेदनाएं व्यक्त करती, अपनी हर इक श्वास में।
इंसानियत भी रोती है, इस अतिथि के सत्कार पर,
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
मंचों के आगे बैठकर नारे लगाती आई है,
घोषणापत्रों में वो, प्रथम स्थान पा इठलाई है।
अब पांच सालों बाद वो, आएँगे उसके द्वार चलकर,
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
सखी है उसकी गरीबी, जीवन समर की राह में
साथ हंसतीं साथ रोती एक दूसरे की आह में।
उनकी हंसी की निस्तब्धता में, रोती है मानवता ठहर
ले कटोरा हाथ में, फिर रही है भूख घर-घर।
जिस द्वार आगे कुछ मिला, वह सदा खुशहाल हो
जो द्वार उससे न खुला, उसका भी सुखी संसार हो
द्वेष मन में है नहीं, वह खुश है अपनी मौत पर,
लेकिन ले कटोरा आज भी, फिर रही है भूख घर-घर।
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भूख का न ही कोई धर्म है और न ही कोई जाति, वह सम्पूर्ण विश्व में फैली हुई ईश्वर की वो रचना है जो तथाकथित सभ्य समाज की बड़ी-बड़ी बातों और भूमण्डलीकृत विचारों से कोई विशेष सरोकार नहीं रखती है। उसके जीवन का हर क्षण अगले क्षण पेट भरने की तैयारी में बीतता है, यही उसका जीवन लक्ष्य है। यह कविता उस सार्वभौम रचना के मानवीकरण का एक प्रयास है।