कुर्सी Rahul Kumar Mishra
कुर्सी
Rahul Kumar Mishraमैं शय हूँ तेरे ख्वाबों की,
तेरी मंज़िल का विश्राम हूँ मैं।
किसी विवश ठिठुरते हाथों की,
क्षमताओं का परिणाम हूँ मैं।।
मैं हूँ सत्ता का लालच एक,
मैं ही असीम अभिलाषा हूँ।
मुझमें ही निहित रणनीति सकल,
मैं परिवर्तन की आशा हूँ।।
मैं मुक्त धर्म के बंधन से,
एक सतत प्रवाहित दरिया हूँ।
मैं सत्ता के लोलुप चेहरों के,
जातिवाद का ज़रिया हूँ।।
मुझसे ही शासन चलता है,
मुझसे तू अर्थ कमाता है।
मेरे अस्तित्व के आलिंगन से,
तू ख़ुद इतिहास बनाता है।।
मुझ पर ही होती कुटिल सियासत,
मुझसे ही धरा संभलती है।
मेरी आँचल के आड़ में पल-पल,
नीयत रंग बदलती है।।
लुटती है जब इज़्ज़त मेरी,
कभी नफरत के अंधियारे में।
मैं विवश तमाशा बनती हूँ,
मंदिर, मस्जिद बंटवारे में।।
मेरे पवित्र दामन को जब,
ईर्ष्या, छल से खींचा जाता है।
होती नीलाम है मानवता,
जनतंत्र को बेचा जाता है।।
जब शौर्य तेरा मुझे करे अलंकृत,
तो भूमंडल तेरा अपना है।
मुझमें ही कुंठा भूतकाल की,
मुझसे ही भविष्य का सपना है।।
जन जन की चाहत हूँ मैं,
निष्ठा हूँ, सम्मान हूँ मैं।
मत कलुषित कर तू आँचल मेरा,
तेरी सोच की एक पहचान हूँ मै।।
मत बाँट मेरी स्वायत्तता मानव,
तेरे स्वावलंबन की शान हूँ मैं।
तेरे अखंड राष्ट्र की एकता की,
संप्रभुता की पहचान हूँ मैं।।
