अस्तित्व की पहचान  shikha kumari upadhyay

अस्तित्व की पहचान

shikha kumari upadhyay

सच ही तो तू कहता है,
हाँ मैं कमजोर ही तो हूँ।
तू कहाँ घर के रूतबे को सभाँलता है
और मैं महज़ उसे निभाने का मोहरा हूँ।
 

माँ, बेटी, बहन, बहू ये केवल
तेरे लिए रिश्ते ही तो है,
इन रिश्तों पर खरा तो मुझे उतरना होता है।
हाँ तू सही है रिश्तों को सँभालकर
सवाँरना कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
 

तेरी नजरों में, मैं अबला ही हूँ,
जो महज़ दो घरो की इज्ज़त को
अपने काँधे पर हँस कर सँभाल जाती है।
नौ महीने का वो दर्द अकेले सहती हूँ, तब
मेरी ये मुश्किल तूझे मेरी कमज़ोरी दिखाई देती है।
 

मान लेती हूँ तेरे इस समाज में
केवल तू ही तो बलवान है
मैं तो बस लाचार हूँ
मेरी तेरे लिए यही तो पहचान है।
 

तो क्या हुआ कि मेरे सभी सपने
तेरे सपनो के लिए भुला देती हूँ।
तो क्या हुआ मेरी खुशियों का गला
मैं खुद अपने हाथों से घोंट देती हूँ।
तो क्या हुआ तेरे लिए अपनी
पहचान बनाने से समझौता कर लेती हूँ।
 

तू मान या ना मान ए पुरुष प्रधान समाज
मैं विधाता के विधान का जवाब हूँ
अब तो यह मान मैं कमज़ोर नही
बस तेरी कमज़ोरी की पहचान हूँ।

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