लज्जा Rahul Kumar Mishra
लज्जा
Rahul Kumar Mishraमैं नारी का शृंगार सबल,
नयनों की हया का साज़ हूँ मैं।
मत रौंद मुझे ऐ निष्ठुर मानव,
तेरे समाज की लाज़ हूँ मैं।।
उन आँखो के काजल में मैं,
उस चूड़ी की खनकार में हूँ।
मुझसे ही तेरी मर्यादा,
मैं पायल की झंकार में हूँ।।
मैं माँ, बेटी, भगिनी में सृजित हो,
तेरे अस्तित्व को जनती हूँ।
फिर क्यूँ इस समाज में तेरे,
मैं काम पिपासा बनती हूँ।।
मैं लुटती हर चौराहे पर,
हर गली में हर वीरानों में।
तेरी देह क्षुधा की तृप्ति वश,
मैं बिकती मलिन दुकानों में।।
मैं ममता हूँ, सम्मान हूँ मै,
मुझे स्वाभिमान तो पाने दे।
मैं विवश लिप्त तृष्णा से तेरी,
मुझे ख़ुद दहलीज़ बनाने दे।।
मुझसे ही धरा की चंचलता,
मुझ पर ही निशा इतराती है।
जो लूट सके तो लूट इन्हें,
तुझे नग्न निसर्ग बुलाती है।।
कब किया हिफाज़त तूने मेरी,
सीता के नयन का नीर हूँ मैं।
तेरे पुरुष श्रेष्ठ उस वीर सभा में,
द्रौपदी की खिंचती चीर हूँ मैं।।
करती विलाप निज परदे में,
ऐ पुरुष समाज बदल जा तू ।
थक गयी अनन्त से चलते चलते,
कुछ कदम साथ तो चल जा तू ।।
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लाज़ नारी का सबसे बड़ा शृंगार है। यह लज्जा ही तो है जो उसके सौंदर्य को अप्रतिम बनाती है, पर प्रश्न ये है कि इस लज्जा रूपी पर्दे से क्या ज़बरन उसके शक्ति रूपी आभा मंडल को ढकने का प्रयास किया जा रहा है? क्या बाँध दी गई है उसकी आज़ादी लज्जा की मज़बूर बेड़ियों में? देश के पुरुष प्रधान समाज में नारियों की स्थिति पर दृष्टि प्रपात की एक कोशिश है यह कविता।।
