मानवता prashant mishra
मानवता
prashant mishraमै मानवता
देख रही हूँ खुद को
कतरा-कतरा सड़ते हुए |
कभी खुद को शर्मसार पाया
कुरुक्षेत्र में,
खुद के लोथड़े नोचते गिद्धों
से घिना गयी थी |
आज फिर मर रही हूँ |
कभी आतंक के पाश में
कही सीरिया में कुचली गयी
पाक में कराह रही
इक अदद जमीन तलाश रही
अपनी ज़मीं पे,
अचंभित हूँ
की जिन्दा हूँ
पर हूँ,
मुर्दों की तरह
फिर जलने को तैयार
वक्त की चिता पे |