व्यर्थ की दौड़ रोशन "अनुनाद"
व्यर्थ की दौड़
रोशन "अनुनाद"सूखे, ठूंठ हो गए
पेड़ की चोटी पर,
बैठा एक मटमैला गिद्ध,
जैसे कोई महात्मा,कोई सिद्ध,
जीवन के अंतिम चरण में
पहुँच गए किसी मानव को
निष्पक्ष,निर्लिप्त भाव से,
निहारते यमराज,
उसकी स्वाभाविक मौत,
तिल तिल कर छूटते
प्राणों के दर्शनीय सौंदर्य का
रसास्वादन करते हुए,
निश्चित परिणाम का
निश्चिंतता से
अवलोकन करते हुए,
ऐसा ही है जीवन का अंत,
बाकी सब कहानी मनगढंत,
फिर भी, आपाधापी, मारामारी,
अनंत यात्रा, थकी-अनथक दौड़,
हर दिन, जीवन-पर्यंत।
किसी को देखने समझने की
फुर्सत ही नहीं,
तांगे में जुते घोड़े की मानिंद,
दोनों आँखे बस एकटक,
एक ही ओर, देखती,
मष्तिष्क एक ही ओर सोचता,
कदम एक ही ओर दौड़ते,
गर्मी- सर्दी, बरसात,
दिन हो या रात,
बात बे-बात,
दौड़ता ही चला जाता हूँ,
इस दौड़ में कौन साथी,
कौन आगे निकल गया,
कौन छूट गया ना-मालूम,
पैरों में असहनीय छाले,
चेहरे पर फिर भी
मज़बूत मुस्कान,जुबाँ पर ताले,
अंदर ही अंदर दौड़ से विरक्ति,
पर न जाने कौन सी आसुरी शक्ति,
दौड़ा रही है, बेतहाशा, बेतरतीब,
ऐसा क्यों हो गया है तू,
लक्ष्य मालूम नहीं,
साधन ही साध्य हो गया है,
दौड़ रहा हूँ क्योंकि दौड़ना ही लक्ष्य है,
अंदर से खोखला, ठूंठ हो जाऊंगा,
बाहर से सूखा पेड़,
जीवन का खेत जोतते-जोतते,
आ जायेगी मुंडेर,कोई मेंढ़,
तब सोचने के लिए
समय बचा न होगा,
जीने के लिए जीवन न बचा होगा
कुछ बचा होगा तो सूखा, ठूंठ पेड़,
उसकी चोटी पर बैठा
एक मटमैला गिद्ध।