स्त्री SIDDHARTHA SHUKLA
स्त्री
SIDDHARTHA SHUKLAदेखकर यह स्त्रियों की स्थिति संसार में
फिर कवि का मन भला कैसे लगे श्रृंगार में।
रह गईं हाथों में दबकर सिसकियाँ-चीखें कई
नाम सब आए नहीं छपकर कभी अखबार में।
इक धुआँ सा उठ रहा है जिस्म-रूह-वजूद से
अस्तित्व से सस्ता हुआ तेज़ाब क्यों बाजार में।
उम्र के हर मोड़ पर ही चुप कराया है उसे
क्या पिता-बेटे-पति सब एक ही कतार में।
द्रौपदी अब है विवश और कृष्ण भी अब मौन हैं
आओ लक्ष्मीबाई अब धृतराष्ट्र के दरबार में।
बेटियों की फ़िक्र तुमको तब भी न होगी कोई
बंद बेटों को करो यदि घरों की दीवार में।
चाहते हो बेटियाँ महफूज़ हों आज़ाद हों
तो ढाल दो इस फूल को अब शूल के आकार में।