याचक Devendra Raj Suthar
याचक
Devendra Raj Sutharमैं याचक की तरह
तुझे माँगता रहा
और वो अपनी
ज़िद पर अड़ा रहा
तू पपिहरा बन
बिलखती रही
मैं चातक बन
तड़पता रहा
प्रिये ! तुम बिन
ये बसंत अब
बसंत नहीं लगता
हरीतिमा में भी अब
हरा रंग नहीं दिखता
कैसे संभलूँ !
इस दर्द के मंज़र में
बढती जा रही है
जहाँ विकलता
और तुमको ना पाने की
आखिर कैसी विवशता ?
जिंदगी हो तुम तो प्रिये !
अब बताओ !
कैसे मैं जी पाऊंगा ?
पल-पल दम घुटता है
क्या मैं शेष रह पाउँगा ?