मेरी वकालत  Shikha Kumari Upadhyay

मेरी वकालत

Shikha Kumari Upadhyay

मैं खड़ी थी उस अदालत में जहाँ
सबूतों को पेश नहीं करना पड़ता है
दिखता है उसको वो सब कुछ
जो इस धरती पर मानव करता है।
 

न्याय नहीं मांगना था मुझे
ना थी कोई दलील मेरी
ज़हन में थे सवाल कई
जिनको उठना था आज यहीं।
 

मैंने अपने दुप्पटे को तन से हटाकर
रख दिया था उसके कदमों में और
फिर पूछा क्या कीमत थी उसकी
जिसको मैला किया धरती के कुछ दरिंदों ने।
 

चलो मैंने यह भी माना, मेरे कपड़े छोटे थे
यह तोहमत भी स्वीकार है कि मैं मर्यादा के पार थी
पर उस कली की मर्यादा कैसे तय की गई
क्यों गुड़िया खेलने वाली गुड़िया
हैवानियत के नज़रों में आ गई।
 

एक पिता बड़े जतनों से बेटी को विदा करता है
दो घरों की इज्ज़त का ज़िम्मा बेटी को उठाना पड़ता है
तभी उसे दहेज के चौराहे पर नीलाम कर दिया जाता है
तब क्यों वो पिता बेटी के लिए समाज की
इस परंपरा को नहीं बदल पाता है।
 

वही दुप्पटा मांँ का आँचल भी तो बन जाता है
ममता और दुलार से उसमें एक बालक पल जाता है
अपने सीने से लगा प्यार से दूध जिसे पिलाया था
वही बेटा क्यों आज उसे वृद्ध आश्रम छोड़ आया था।
 

माना मुझे दहलीज़ को पार करने दिया गया
पर मेरे उठते होसलों को भी तो तोड़ा गया
सीता के युग से कलयुग तक अग्निपरीक्षा दी है मैंने
हाँ मैं वही स्त्री हूँ जिसने अपनी गरिमा खोकर
तेरे समाज की अद्भुत रचना की है।
 

यह तेरा समाज कभी देवी के नाम पर पूजता है मुझे
तो कभी सियासत के नाम पर खोजता है
सड़को पर मेरी इज्जत तार तार कर दी जाती है
और दस लोगो में गाली मेरे नाम की ही पुकारी जाती है।
 

समाज समाज समाज इन्हीं बेड़ियों से बँध गई हूँ मैं
आज़ाद जब हुई तो तेरे पास पहुंचा दी गई
नहीं बची इस दुनिया से मुझे आशा कोई, क्योंकि
क्या फाँसी की सज़ा लौटा पाई मेरी इज्ज़त खोई?
 

स्त्री की भावनाओं को यूँ नज़र अंदाज़ ना कर
ए खुदा अब तू ही ये समाज बदल
सजाओं को पाकर नहीं बदलेगी ये दुनिया
बस इन पत्थरों के दिलों में थोड़ी सी इंसानियत तू भर।

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