पाशविकता रोशन "अनुनाद"
पाशविकता
रोशन "अनुनाद"मैंने नाखून काट डाले,
हाथ-पैर के,
मन में पर बहुत लंबे हैं
द्वेष-बैर के।
आदमी दिखने की
लाख कोशिश,
पर हूँ तो जानवर ही,
अपना स्वार्थ दिखते ही,
मौका पाते ही,
मन के नाखून
बाहर निकल आते हैं,
माँ-बहन,बहु-बेटी के,
जिस्म नोचने-खसोटने को,
भाला-बरछी बनकर,
भीड़ में, झुंड में ,
किसी भी इंसान को
मार डालने को,
बेसिक इंस्टिंक्ट उभर आती है,
शिकार करने की,
कच्चा मांस खाने की
लालसा जग जाती है,
फिर अकेले में गुम होना,
भीड़ में शामिल होना
आसान भी तो है,
मकसद पूरा होना आसान है।
कितना आसान हो गया है,
इन्सानी जान नोचना,
उसको मार डालना,
बिना व्यक्तिगत बैर के,
जिसे शायद मैं जानता तक नहीं,
मारने का अफ़सोस नहीं,
संवेदना मर गई मेरी,
आनंदित होने लगा हूँ,
लार टपकती है,
इंसानी जिस्म नोचने को,
चस्का लग गया है,
इंसानी जान से खेलने का,
जिस्म से निकलते
गर्म लाल लहू से,
मेरी आँखें संतृप्त होने लगी हैं,
किसी दिन मेरा अपना भी
उसी भीड़ में, भीड़ के
आनंद का शिकार बन जाए
तब, शायद मेरी घ्राण शक्ति
केवल लहू सूंघ सके,
किसका है न सूंघे,
मेरे अंदर का जानवर,
उसी दिन के इंतजार में
दुनिया के बाजार में,
आनंदमयी हो रहा है,
पर मेरे अंदर का इंसान,
मेरे मन के किसी कोने में,
भयभीत, शर्मिंदा,
अभी भी कुछ-कुछ ज़िंदा,
जार-जार रो रहा है।