जड़ता Vivek Tariyal
जड़ता
Vivek Tariyalक्या यही जड़ता है
कि खुली आखों से भी
हम देख नहीं पाते।
या यह कि ह्रदय में धड़कन होने पर भी
वह पाषाण सम कठोर लगता है।
रक्त का प्रवाह तो है
लेकिन शरीर के साथ-साथ
इच्छाशक्ति भी ठंडी पड़ गई है।
इतनी ठंडी कि उसके अणुओं में
कंपन भी नहीं बची है।
इच्छाशक्ति से साथ ही
कुछ लोग स्वाभिमान को भी
दफना आए हैं।
शायद उन्हें डर था
कि उसकी अंत्येष्टि की ज्वाला
फिर से लहू में उबाल न भर दे।
क्या यही जड़ता है
कि मुख होने पर भी
हम कुछ कहते नहीं।
या यह कि मन में उठने वाले विरोधाभास की
हम प्रतिक्षण निर्मम हत्या करते हैं।
"जो मिला है उसी में सुखी रहना चाहिए"
यही हमारा ब्रह्मास्त्र है
और, "ईश्वर सब देख रहा है"
यही हमारी आखिरी उम्मीद।
क्या यही जड़ता है
कि अत्याचारियों के सामने होने पर भी
मानसिक बेड़ियों से बंधा साहस
उठने का प्रयास भी नहीं करता।
ठन्डे लहू के संचार से बचने हेतु
कायरता का कम्बल ओढ़ लेता है।
विनम्रता का श्रृंगार
शौर्य की लालिमा को फीका कर देता है
और यह देख
उत्साह की ऊँची लहरें
निज अस्तित्व के खोकलेपन को भाँपकर
आत्महत्या कर लेती हैं।
क्या यही जड़ता है
कि स्वप्न देखने पर भी
मन अंकुश लगाए रहता है।
उसे डर है कि स्वप्न देखने पर
रचनात्मकता अपनी सीतनिद्रा से उठ जाएगी
और अंतर साहस उस पर मोहित होकर
बेड़ियों का त्याग कर देगा।
उसका ओढ़ा हुआ कायरता का कम्बल
रचनात्मकता की आभा से जल उठेगा
और यही विचाराग्नि
स्वाभिमान और इच्छाशक्ति को
पुनर्जीवित कर देगी।
इसी डर से सभी चुप्पी साधे हुए हैं
किन्तु यह सब किसलिए ?
जीवन को बचाने हेतु
जड़ता को अपनाना
क्या जीवन की हत्या नहीं है?
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जीवन की इस दौड़ में प्रायः हम जीवन के मूल तत्व को भुला कर जीवन के सौंदर्य का रसपान नहीं कर पाते। आधुनिक युग में अक्सर हम स्वयं पर और समाज पर होने वाले अत्याचारों को चुपचाप सहन करते चले जाते हैं। यह सहनशीलता नहीं अपितु डर है जो हमारे मन मस्तिष्क पर कुछ इस प्रकार हावी हो जाता है कि हम जड़ता का हाथ थाम लेते हैं और जीवन को बचाने हेतु उसी की हत्या कर बैठते हैं।