यह खून नहीं है, स्याही है  शुभम त्रिपाठी

यह खून नहीं है, स्याही है

शुभम त्रिपाठी

कितनी माँगें उजड़ी हैं,
जो कितनो की साँसें टूटीं।
कितनी गोदें अब सून हुई हैं,
कितनो की आसें टूटीं।
 

ये नृशंस घटना ना केवल
एक घर को ही दहलाती है;
अपितु नाश कर देती सब कुछ,
'आतंकवाद' कहलाती है।
 

बिन ब्याही बिटिया उस घर की
रो-रो कर पथराई है।
कुटुम्ब नाश हुआ जो पूरा,
शेष बची इकाई है।
 

जर्जर सपने, खोए अपने;
घर भी अब तो सून है।
मानो आच्छादित जीवन अब से,
जलती गरमी का जून है।
 

गरल ये निकला आतंकवाद का,
किस समुद्र के मथ जाने से?
विष-पान किया कइयों ने इसका,
ना जाने, अनजाने से!
 

कब तक ऐसा नाश चलेगा?
क्या मानवता से लड़ाई है!
धर्म-नाम पर यह खून-खराबा?
तुमने सच्ची सीखें पाई हैं!
 

रुधिर बह रहा पानी के सम,
यह कलयुग की सच्चाई है।
मैं रक्त-प्लावित शब्दों से लिखता,
'यह खून नहीं है, स्याही है'।
 

अब कितनी माँगें उजड़ेंगी?
क्या साँसें भी टूटेंगी?
गोदें तो सून हुई ही थीं;
और भी आसें टूटेंगी?

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