जो कल तक था, वो आज नहीं शुभम त्रिपाठी
जो कल तक था, वो आज नहीं
शुभम त्रिपाठीजो कल तक था, वो आज नहीं!
रिश्तों में अब जज़्बात नहीं!
कलरव क्यों है मौन धारा पर?
जीवन अब गुलबाग नहीं!
सबसे मिलना,
मिलकर खिलना;
संग हँसना-रोना,
सब साझा करना;
संग चलना,
संग गिरकर उठना;
पर राहें अब क्यों जुदा हुईं?
ना लगती है यह बात सही!
रिश्तों में अब जज़्बात नहीं!
जो कल तक था, वो आज नहीं!
सरगम में अब वो राग नहीं!
कर्कश वाणी क्यों जिह्वा पर?
जीवन में अब संवाद नहीं!
सबसे मिलना,
अभिवादन करना;
संग में रचना,
फिर वाचन करना;
संग गाना,
संग वादन करना;
पर रागें क्यों अब जुदा हुईं?
ना लगती है यह बात सही!
सरगम में अब वो राग नहीं!
ये सब था कल, क्या आज नहीं?
थे रिश्ते जज़्बाती, आज नहीं?
थे राग सुरों में, आज नहीं?
कवि-मन मेरा है यह कहता;
दिख जाते हैं,
मिल जाते हैं,
रिश्ते जज़्बाती कुछ आज कहीं!
कटु वाणी में भी,
मिल जाते हैं,
सरगम महकाते राग कहीं!
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प्रस्तुत कविता में समय के साथ लोगों में आए व्यक्तिगत एवं सामाजिक बदलाओं का चित्रण किया गया है। बदलाव; चाहे वह लोगों से विरक्त होकर आगे बढ़ जाने का हो, या फिर पीढ़ी में उत्पन्न हुए अंतर से हो, जहाँ परिवार के लोगों के बीच सरगम(वार्ता) तो है, किन्तु राग(भावनाएं) कहीं खो से गए हैं। अंत में, कवि ने इस निराशा को कम करते हुए यह बतलाया है कि सब कुछ नहीं बदला है।