अनन्त-अंक शुभम त्रिपाठी
अनन्त-अंक
शुभम त्रिपाठीआच्छादित-परिवेष्टित,
प्रेम-अंक में।
मैं कैद विहग-सा विचरण करता,
इस शून्य अनन्त में।
है यह अंक मोह-पाश,
फैलाता है केवल त्रास।
कर विकास का सर्वनाश,
विलोपित करता है प्रकाश।
जीवन की अनन्त सीमाएँ,
होतीं ऊर्जा से परिपूर्ण।
प्रति-मन उत्साहित करतीं,
'हो विकास भरपूर'।
जब "अनन्त-अंक" सीमाएँ,
सिमट सी जाती अंक में।
प्रबल मोह हो जाता है फिर,
हर मनु, सन्त-महन्त में।
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इस कविता में प्रतीकात्मकता का वर्चस्व है। कविता में मोह (अंक का प्रतीकार्थ) को उन्नति-मार्ग में बाधा के रूप में दर्शाया गया है, वहीं "अनन्त-अंक" का तात्पर्य असीम संभावनाओं से भरी गोद से है, अर्थात उन्नति के अवसरों से है। एक तरफ जहाँ अंक कर्म-पथ में अवरोधक बनता है वहीं ''अनन्त-अंक" अवसरों से भरपूर है।