मेरा गाँव अंकित कुमार छीपा
मेरा गाँव
अंकित कुमार छीपाबेकार सी है, इस शहर की हालत,
हर शख़्स यहाँ घबराता है,
इस दौड़ भाग से दूर मुझे,
मेरा गाँव बहुत याद आता है।
जब ठोकर खाकर गिरने पर, कोई हाथ न आगे बढ़ता है,
जब छोटी-छोटी बातों पर, इंसान आपस में लड़ता है,
जब लोगों का लोगों पर से, विश्वास ख़त्म हो जाता है,
इस दौर में आखिर तब मुझको,
मेरा गाँव बहुत याद आता है।।1।।
जब रातें खत्म न होती हैं और दिन छोटे से लगते हैं,
जब आँखों के काले गड्ढ़े, सुंदरता लगने लगते हैं,
जब छोटी सी दूरी क़दमों को, लंबी लगने लगती है,
जब पैदल पैदल चलते-चलते, अंग-अंग थक जाता है,
इस दौड़ धूप में तब मुझको,
मेरा गाँव बहुत याद आता है।।2।।
मेरे गाँव की वो सुंदर सुबह, वो यहाँ कहीं ना दिखती है,
मेरे गाँव की मिट्टी की खुशबू, इस फ़िज़ा में कहाँ महकती है?
बस नम्बर वन की होड़ यहाँ, है पिछड़ेपन का पछतावा,
है स्वार्थ यहाँ है ढ़ोंगीपन, है आडम्बर है दिखलावा।
जब एक विदेशी भाषा को आदर से पूजा जाता है,
और हिन्दीभाषी होना भी, स्तर का मानक बन जाता है,
कुछ शिथिल विचारों संग मुझको,
मेरा गाँव बहुत याद आता है।।3।।
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"ऊंची इमारतों से मकां मेरा घिर गया, कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।" शहरों की जगमगाती दुनिया का पर्दाफाश करता जावेद अख्तर साहब का ये शेर। यक़ीनन गांँवो को लेकर किसी शायर ने ऐसे शेर नहीं लिखे। क्योंकि गाँवों में प्यार पलता हैं और शहरों में द्वेष। एक रचना मेरे गाँव के नाम ।