रावण का प्रश्न  Rahul Kumar Mishra

रावण का प्रश्न

Rahul Kumar Mishra

पाखंड भरे इस कलयुग में,
बन पाप दिलों में रहता हूँ।
हाँ हूँ त्रेता का अपराधी,
मैं खुद को रावण कहता हूँ।।
 

भगिनी की रक्षा के खातिर,
भयभीत ना था उस नश्तर से।
निज काल से मैं आशंकित था,
मैं परिचित था उस ईश्वर से।।
 

सीता का मैंने हरण किया,
श्रीराम से रिपुता पाली थी।
असुरों का स्वामी होकर भी,
ना पाप की दृष्टि डाली थी।।
 

मैं तो एक दंश कलंकित हूँ,
राक्षस हूँ अपने कामों से।
एक प्रश्न हृदय करता है मेरा,
इन कलयुग के श्रीरामों से।
 

स्त्री की इज़्ज़त की लंका,
तू भी हो नृशंस कुचलता है।
मैंने तो हरी थी एक सीता ,
तू तो हर रोज़ बदलता है ।।
 

हे कलयुग के पुरुषोत्तम तुम,
मर्यादा खूब निभाते हो।
दस रथ पर लाते सीता को,
माँ को बनवास दिखाते हो ।।
 

आज भी नारी विवश खड़ी,
दे रही परीक्षा अग्नि में।
अब क्यूँ रावण बन खोज रहे हो,
एक नई सिया पर भगिनी में।।
 

इतिहास तुझे बतलाता है
जब अधर्म ने मन में वास किया
तब धर्म के गौरव की ख़ातिर,
भ्राता ने कुल का नाश किया।
 

फ़िर किस अहंकार में तुमने,
इस अखंड धरा को काट दिया,
प्रकृति का सृजन कलंकित कर,
भगवान भी अपना बाँट दिया।
 

हर वर्ष विजय पाने को तुम,
एक रावण नया जलाओगे।
पर बाण चलाने त्रेता का,
वो राम कहाँ से लाओगे।।

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