द्रौपदी सी व्यथा शशांक दुबे
द्रौपदी सी व्यथा
शशांक दुबेधवल कुर्तों की जेबों से
निकले अब तक आश्वासन है।
झूठे वादों, झूठे स्वप्नों से,
कब घर में आता राशन है?
जनता हुई बस द्रोपदी सी
तैयार खड़ा दुशासन है।
सेवा सुश्रुषा, सब बीती बातें
आँखों में बस सिंहासन है।
कुंडली मार बस, बैठे इस पर
इनका यह प्यारा आसन है।
गांधारी सा पट्टी बाँधे
चलता धृतराष्ट्र-कुशासन है।
लोकतंत्र पर फ़ब्ती कसता
तानाशाह प्रशासन है।
गए मुग़ल,अंग्रेज़ भी गए
क्या यह जनता-शासन है??