मरता बचपन  दुर्गेश कुमार सराठे

मरता बचपन

दुर्गेश कुमार सराठे

मैंने देखा जब एक बार,
बचपन मरता धुआँधार।
छूट गई विद्या अध्ययन की बेला,
बचपन कार्य कर रहा अकेला।


जहाँ इस पल में बालक विद्यालय को जाएँ,
वहाँ वह बचपन भैस चराए।
हाय! भाग्य तेरी यह लीला कैसी,
कर डाली तूने बचपन की ऐसी-तैसी।


क्या कसूर था उस बालक का,
जिसका तूने बचपन छीना,
मिट्टी में मिला दिया तूने,
कल का उभरता एक नगीना।


अगर कहीं बच पाते उसके यह स्वर्णिम पल,
हो सकता है कोई बहादुर होता वह भी कल।
अगर कहीं वह भी विद्यालय जाता,
तब निश्चित ही कुछ कर पाता।


अगर कहीं वह कुछ न बन पाता,
तब कम से कम गंवार तो न कहलाता।
उसने भी तो कई सपने देखें होंगे,
उसके भी कुछ अरमा अपने होंगे।


पर भाग्य तेरा यह करतब कैसा,
कुछ न हुआ सोचा होगा उसने बैंसा।
उसके कितने सपने टूटे होंगे,
कितने अरमा फूटे होंगे।


रे भाग्य कुछ पल ही तो मांगे होंगे उसने,
तू चला आया उनको भी ग्रसने।
रे भाग्य छोटी सी बिनती है मेरी,
क्रियाविधि बदल अब तो तेरी।


ऐसे किसी के सपनों को न तोड़ाकर,
सब कुछ न छोड़े तो कम से कम
बचपन को तो छोड़ाकर।
बचपन ही वह पल होता है,
जहाँ भविष्य अटल होता है।
बचपन ही तो सब कमियों को भरता है,
भावी इमारत की नींव पटल पर धरता है।

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