अपनी लकीर  Kumar Abhishek

अपनी लकीर

Kumar Abhishek

कुछ उदित
कुछ शिथिल
कुछ बंद कपोल सा था प्रतीत,
कोई मंद-मंद
कोई द्वन्दबद्ध
अपनी उलझन में मतिमलीन ,
ना चाह
करें कुछ काम,
जो इस जगत को लगे नवीन,
ना जोश
जो कर दे कल,
इन चंद तत्वों को मलीन,
हम तो खड़े इस राह में
बन कर उस पत्थर के सरीक,
ना सुन सके किसी लब्ज़ को
ना लिख सके अपनी लकीर।
 

कुछ चंद घंटों की घटी
इक बात जो है कचोटती,
इक डंक सा चुभता चला
आ छेद दिल को भेदती,
उस गुट का बढ़ता हौसला
सरेआम ज़िस्म को रौंदता,
उन सिसकियों की आहटें
इन गर्दिशों को चीरती,
सिहरा गई मरती ज़मीर,
फिर भी बने बुत हम रहे खड़े
बन कर उस पत्थर के सरीक,
ना सुन सके किसी लब्ज़ को
ना लिख सके अपनी ज़मीर।
 

इक शख़्स सड़क पर था पड़ा
औंधे मुँह वो था गिरा,
तरबतर लहू से था लथपथ
कपड़ों का बना था चीथड़ा,
दर्शकों का झुंड उसको
देखता था चल रहा,
वो गिन रहा था अपनी अंतिम सांस
हम नोट बैठे गिन रहे,
ये सीख मानवता की देने
क्या आएगा फिर वो फ़कीर,
हम तो खड़े इस राह में
बन कर उस पत्थर के सरीक,
ना सुन सके किसी लब्ज़ को
ना लिख सके अपनी लकीर।
 

यहाँ कौन है वक्ता बना?
वो क्यों खड़ा बस कह रहा?
यहाँ "हम" का मतलब "मैं" से  है,
ये जंग अंतर्मन से है,
"मैं" ही निरीह "मैं" ही अधम
बस मन का है ये सब वहम,
एक डोर से बंधे हैं सभी
उसी डोर को ताने से प्रतीत,
हम तो खड़े इस राह में
बन कर उस पत्थर के सरीक ,
ना सुन सके किसी लब्ज़ को
ना लिख सके अपनी लकीर।

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