एक स्वर्णिम मंज़िल sachin rai
एक स्वर्णिम मंज़िल
sachin raiजल उठे हैं नवोदित दीपक आज,
आज एक ऐसी महिमामयी रात होगी,
है नहीं कोई गर्जन उमड़ते मेघों में,
आज स्वर्णिम सी बरसात होगी।
ऐसी नज़रें पड़ गयीं है धरा पर,
आज रात में भी सौग़ात होगी,
बरसा हैं आँखों से नूर उनके,
आज तो चाँद तक बात होगी।
दैर-ओ-हरम भी हैरान है आज,
शुक्र है, आज नहीं जात-पात होगी,
परिंदे भी मयख़ाने में हैं आज,
जुबाँ से आज नहीं आघात होगी।
सर्वशांति ही आज एक लक्ष्य है,
हर घर की लौ एक आफ़ताब होगी,
निकल गया आज अश्कों का हर दरिया,
हर जगह सदाक़त की बात होगी।
जिहालतों के अंधेरे ख़ामोश होंगे आज,
चारों तरफ रोशनी की ही जमात होगी,
हट गई है धुंध आज नभ से,
आज हर तारिकाएँ भी नवज़ात होंगी।
घुल जाएगी अमीरी दिलों में आज,
इस कदर दान और ज़कात होगी,
मिट जाएगा बैर, फैलेगा प्रेम,
अब नहीं किसी मन में प्रतिघात होगी।
सर्वत्र विश्व से मिट जाएगा भेदभाव,
हर दिलों में हर्षोल्लास की घात होगी,
होगा रोम-रोम प्रफुल्लित हर जन का,
हर आशियाने में प्रेम की बरसात होगी।
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जीवन के संघर्षों से लोग दूर भागते हैं, वहीं कुछ लोग हर संघर्षों से परे जाकर एक ऐसी मंज़िल पा जाते हैं, जो कुछ अन्य लोगों के लिए कल्पना मात्र है, ये कविता ऐसे नवजवानों को समर्पित है जिन्होंने बड़े ही शांतिप्रिय ढंग से ऐसे भविष्य को अंजाम देने के लिए अथक प्रयास किया है, और एक दिन वे समाज की सभी मलिनताओं को दूर करते हुए ऐसा ही समाज विश्व को देंगे।