एक शब्द Aanchal Singh
एक शब्द
Aanchal Singhपाकिस्तान…
सुनते ही इस शब्द को कुछ सजग हो उठते
कुछ की आँखें थोड़ी उठती
और कुछ के तो चेहरे तमतमा उठते।
कुछ तो बिना रुके एक पल इस पर अपना मत दे डालते
कुछ तो इससे तौबा करते,
औऱ कुछ…
कुछ तो इसे गरमा गर्म राजनीतिक मुद्दा बना डालते।
आख़िर क्यों?
क्यों इस शब्द को सुनते ही
सत्तर साल पुरानी विभाजन की वो आग धधक उठती?
आख़िर क्यों?
अभी भी ज़िंदगी के उस मोड़ पर
वो मर चुकी सिसकियाँ ज़िंदा हो उठती।
हालात तो ये है…
कि अब तो हमारे लिए
वर्तमान समस्याओं से ज़्यादा, बेइंतहा फ़िक्र का मुद्दा
वो पुरानी इमारतें, और उनकी ईंटे बन चुकी है।
और अब “जाति”...
जाति इंसान की अच्छाई का मापदंड बन चुकी है
क्यों…
क्या जो ज़ख्म मिले वो उन मनुष्यों ने नहीं
पाक की उन धरती या आसमानों ने दिए?
क्या राजनिति का चोगा पहने उन नेताओं की बजाय
साम्प्रदायिकता की मांग पाक की उन हवाओं ने की?
नही..
इन सभी के जवाब उनकी ना में थे
चेहरे पर अभी भी थोड़ी सी शिकन
और दिल में हमारे लिए देश की बेवफ़ाई के ताने थे।
क्योंकि उन जैसों को फिक्र थी उस मान की
जो कब की मासूमो की चीखों में दफ़्न हो गई।
उन्हें फ़िक्र है उस राष्ट्रभक्ति की
जो कब की भ्र्ष्टाचार और ईर्ष्या की गलियों में गुम हो गई।
नहीं मुझे नहीं चाहिए
ये झूठी देशभक्ति और शब्दों के जाल
ज़रूरी है तो बस
दो मीठे बोल और जाति पाति से रहित प्यार।
अपने विचार साझा करें
यह कविता एक ऐसे शब्द के लिए लिखी गई है, जिसे सुनते ही शायद लोगो में तुरंत प्रतिक्रिया होती है, और अक्सर ये नकारात्मक ही होती है, परंतु मेरे अनुसार इस समाज में और बहु हज़ारों समस्याएँ हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है, बजाए कि हम इन शब्दों में फसे बिना समस्याओं को हल करने पर विचार करें।