मदिरा  RATNA PANDEY

मदिरा

RATNA PANDEY

शाम होते ही चल देता वह,
मदिरालय की ओर,
छोटा सा एक पेग बनाकर,
लेने लगा वह हर रोज़।
माँ से छुपता पिता से डरता,
बीवी पर तो चलता ज़ोर,
लाख मना करने पर बीवी के,
सुनता नहीं और तो और।


स्वर्ग जैसा घर था उसका,
मचने लगा था अब तो शोर,
बढ़ने लगी थी आदत उसकी,
खुलने लगी थी उसकी पोल।
माता-पिता ने पास बुलाया,
पास बुलाकर बहुत समझाया,
पर तब तक देर हो गई थी,
मत पूछो अंधेर हो गई थी।

 
चलते नहीं थे हाथ और पाँव,
जब तक नहीं लेता था जाम।
सुबह से रास्ता देखता रहता,
फिर कब होएगी शाम,
बन गया था वह उसका गुलाम।


पकड़ लिया था जकड़ लिया था,
कर लिया था अपने वश में,
जाम नहीं में जोंक हूँ पगले,
जो भी मुझे छू लेता है,
आ जाता है मेरे वश में।
धीरे-धीरे चिपकती हूँ मैं,
कर देती हूँ काम तमाम,
वो नहीं पी पाते हैं मुझको,
मैं ही पीती हूँ उनका गहरा लाल रंग का जाम।


त्राहि-त्राहि होती तब घर में,
जब हो जाता लीवर खराब।
डॉक्टर और दवाओं में,
पैसा भी हो जाता बरबाद।
दस बीमारी पीछे लगतीं,
हो जाता हाल बेहाल,
दर्द से वह बड़ा कराहता,
होने लगती ज़िन्दगी की शाम,
फिर भी पीछा नहीं छोड़ती,
जोंक उसका सुबह से शाम।


पछताता आँसू है बहाता,
क्यों हाथ उसका लिया था थाम,
माता पिता की बात जो सुनता,
बन जाते सब बिगड़े काम,
और इसी कशमकश में कर जाता दुनिया को अंतिम प्रणाम।


साथ में यह पीड़ा है लेकर जाता,
कि जीवित हैं मेरे माता पिता।
मुझे मरता देखकर वह जीते जी मर जाएँगे,
यह गम वह ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाएँगे।
कर्त्तव्य था मेरा, उनके बुढ़ापे की लाठी मैं बनता,
अंतिम यात्रा में उन्हें अपने कन्धों पर मैं लेकर चलता।
आज मेरी शैय्या उन्हीं के कन्धों पर जाएगी।
अब कौन उनकी लाठी बनेगा,
मेरे बाद कौन उनका ख्याल रखेगा,
और कौन उन्हें मुखाग्नि देगा।
काश यह सब पहले सोच लिया होता,
तो बूढ़े माता पिता को इस तरह बेसहारा छोड़कर,
मेरी ज़िंदगी का अंत ना हुआ होता।

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