बड़े होने Rahul Kumar
बड़े होने
Rahul Kumarआज एक बच्चे को खेलते देख अपने बचपन को उल्टा,
उन गलियों तक जाने में समय लगा जहाँ से सफर शुरू हुआ,
सब वैसा ही था वो मकां, वो सड़कें और वो चौराहा,
सिर्फ वो बच्चे अब नहीं थे जिनके साथ था शाम को गुज़ारा,
सोचा, आखिर बड़े होने की इतनी जल्दी क्यों थी?
जैसे-जैसे आगे बढ़ा यादों की परत और खुली,
यादव जी का मकान और साव जी की दुकान देखकर आँखें भी नम हुईं,
वो नारियल का पेड़, शाम में बच्चों की रेस, सब रुला गईं,
वो गेंद और बल्ले फिर से मिले, पर खेलने की हिम्मत नहीं हुई,
समझ नहीं आया, आखिर बड़े होने की इतनी भी क्यों जल्दी थी?
शाम थोड़ा और ढली, जज़्बात भी कुछ और जागे,
बिजली के जाने पर लुका-छिपी के खेल याद आए,
याद आए पड़ोसी के घर में रात में लगाए कहकहे,
पैसे कम थे, पर दिल और दोस्तों की भरपूर अमीरी थी,
कौन बताए, आखिर बड़े होने की इतनी क्यों जल्दी थी?
याद आए वो शरारत के पल, जिसमें दो भाई शामिल थे,
खुद को बचाकर दोनों एक दूसरे को फँसाते थे,
छुट्टियों के दिन पापा से दूर भागते थे,
बस दस रुपये में पूरे महीने खुश रहते थे,
फिर भी, न जाने क्यों बड़े होने की बहुत जल्दी थी?
आज वो भाई समझदार हो गया, और छुट्टियाँ ही पापा से मिलने का मौका हैं,
हजारों रुपये हैं, पर खुशियों के नाम पर सिर्फ दिखावा है,
रहता महानगर में हूँ लेकिन दिल उन्हीं छोटी गलियों का आवारा है,
ज़िन्दगी बनाने के नाम पर कई रिश्तों और यादों को तोड़ा है,
आज ये दिल ही पूछ बैठा, बड़े होने की इतनी जल्दी क्यों थी?
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हर किसी को अपना बचपन बहुत प्यारा लगता है। ये कविता भी ऐसे ही एक लड़के के बचपन की यादें है जो आज रोजगार की तलाश में अपने घर, परिवार और बचपन के दोस्तों को बहुत पीछे छोड़ आया है। आज उसे अचानक उसका बचपन याद आया एक बच्चे की हरकतों को देखकर। ज़िंदगी मे इतना आगे भाग गया है ये लड़का कि अपने बचपन की गलियों तक में जाने मे उसे समय लगा। फिर सारी यादें एक-एक करके उसके जेहन मे आने लगी। हर मोड़ पर उसका दिल ही उससे पूछ रहा खुद से “इतने बङे होने की जल्दी क्या थी?”