जल प्रपात  Arun Mishra

जल प्रपात

Arun Mishra

नभ-गगन के हर कोने से
जल प्रपात यूँ टपक रहा था,
उच्च समाज का हर एक प्राणी
खुशियों से बहु चहक रहा था।
 

कोना पकड़े बैठे कुछ लोग
आपस मे कुछ कह रहे थे,
वर्षा जल की हर एक बूँदें
उनमें अश्रु से ढह रहे थे।
 

क्या करता बेचारा वंचित
सर्व समान न बना सका,
कुटियों मे रह रहकर वह
चार तल्ला न बना सका।
 

अब तो पानी भर देगा
उम्मीदों के हर कोने को,
फिर यह ॠतु न भाएगी
उस बेचारे भोले को।
 

हर बर्तन डूबा था उसका
जल के संचित बाढ़ को,
कोस रहा था हर सदस्य
इन्द्र देव के वार को।
 

वर्षा थम गयी झाड़ू उठ गया
नीर की बूँद कछारन को,
गंगाजल से धुल गया कोना
अंधविश्वास मिटावन को।
 

बूढ़े उठ गये बच्चे उठ गये
ऐसी दशा दबाने को,
वही युवा फिर से दब गया
कुटियों से महल बनाने को।
 

प्रकृति का ऐसा नियम देखकर
युवा भी खुद से जूझ रहा था,
वर्षा की हर बूँदो को वह
जल प्रपात सा बूझ रहा था!!

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