नाले की पुकार RATNA PANDEY
नाले की पुकार
RATNA PANDEYनिर्मल स्वच्छन्द बहती हूँ,
जहाँ भी मैं जाती हूँ।
तट पर मेरे हज़ारों आते हैं,
मुझे माता कहकर बुलाते हैं।
हर जगह मान है मिलता मुझको,
भगवान सी पूजी जाती हूँ।
भगवान पर चढ़े फूल मुझमें अर्पण होते हैं,
वरदान मिला है मुझे,
मैं दुनिया की प्यास बुझाती हूँ।
छल-छल बहता मेरा नीर,
अमृत जैसा लगता है,
जिस राज्य से मैं गुज़र जाऊँ,
वह सौभाग्यशाली बनता है।
जंगल से अगर गुज़र जाऊँ,
वन जीवों की प्यास बुझाती हूँ।
कितने ही जीव जंतु मेरी गोदी में हैं पल रहे,
खेतों की हरियाली से पेड़ पौधे हैं महक रहे।
अर्पण करके अपना नीर,
मैं दुनिया को जीवन देती हूँ।
नहीं कोई गंदगी है मुझमें,
कंचन सी चमकती हूँ।
रवि गर्म रखता है तो,
चंदा शीतलता भर देता है,
नील गगन की छाँव में,
जल मेरा कलरव करता है।
तभी दूर नदी को, गंदा, मटमैला,
काला सा पानी दिखाई दे जाता है।
कौन हो तुम? कहाँ से आए हो?
कितने गंदे दिखते हो, नदी पूछ लेती है।
दूर रहो मुझसे।
परिचय मेरा संक्षिप्त किन्तु काम बड़ा है,
वेदना और अपमान से भरा है,
घृणा का मैं पात्र हूँ, हाँ मैं नाला हूँ।
सदियों से इंसानों की गंदगी ढ़ोता आया हूँ,
हाँ मैं नाला हूँ।
सब मुझमें अपनी गंदगी डालते हैं,
रसायन, कीट, ज़हरीली दवाएँ
और ना जाने क्या-क्या मुझमें बहाते हैं।
मेरे पास से यदि गुज़रें,
तो नाक और मुँह चढ़ाते हैं।
सब कुछ अपने अंदर समा लेता हूँ,
साँस नहीं ले पाता, फिर भी अभी तक मैं ज़िंदा हूँ।
शायद मैं तुम्हारा सौतेला भाई हूँ।
दोनों अपनी-अपनी जगह बहते रहे,
अपना-अपना कार्य करते रहे।
सदियाँ बीत गईं, वह फिर मिले।
किन्तु इस बार, बारी नाले की थी,
वह तो वैसा ही था।
किन्तु नदी को किसी की नज़र लग गई थी,
स्वच्छता उसकी जाने कहाँ खो गई थी।
कंचन जैसा नीर अब उसमें नहीं था,
अब तो उसमें कहीं कीचड़,
कहीं कचरे का बसेरा था,
और कहीं मवेशियों की लाशों का ढ़ेला था।
तभी नाले ने पूछ लिया,
कौन हो तुम? कहाँ से आई हो?
बरसों पहले मुझे ऐसे ही कोई मिली थी,
शायद वह मेरी सौतेली बहन थी।
बड़ी सुन्दर, निर्मल, स्वच्छ और स्वछन्द थी वह।
मुझे ताना मारा करती थी,
मेरी हालत पर तरस भी खाया करती थी।
अपने ऊपर उसे बड़ा नाज़ था।
लेकिन तुम तो मुझ जैसी ही दिखती हो,
मुझ जैसी ही लगती हो।
शायद किसी मेले में बिछड़ गई होगी,
तुम मेरी सगी बहन सी लगती हो।
तुम मेरी सगी बहन सी लगती हो।
नहीं बदल सकता तक़दीर मैं अपनी,
यही लिखाकर आया हूँ।
सभी ग्रहण कर लूँगा मैं, जो भी मुझमें डालोगे।
बक्श दो नदियों को उन्हें स्वच्छ ही रहने दो,
उन्हें स्वच्छंद ही बहने दो।
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मेरी यह कविता वर्तमान समय में हो रही नदियों की दुर्दशा के बारे में है, नदियों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। समय आ गया है कि सभी को नदियों की स्वच्छता पर ध्यान देना चाहिये और गंदगी को नाले तक ही सीमित रखना चाहिये। नाले की पुकार के माध्यम से नदी का यही दर्द इस कविता में दिखाया गया है।